बिछ गई है चौसर
फेंके जा रहे हैं
महत्वाकांक्षाओं के पासे।
दांव पर लगे हैं
नैतिक मूल्य, सद्भावनाएँ,
प्रेम, बंधुत्व।
मानवता केश खींचकर
नग्न लाई जा रही है मैदान में।
द्रोणाचार्य कृपाचार्य भीष्म सभी
आज भी विवश मौन हैं।
दुर्योधन दुशासन ताल ठोक रहे हैं
शकुनि का वीभत्स अट्टहास
बना रहा है बधिर।
रौंदे जा रहे हैं
सत्य,नीति और विवेक
ध्वस्त हो रहे नगर
जल रहे हैं शहर
जल,जंगल, पृथ्वी, आकाश।
मर रहे हैं औरत, बच्चे
सैनिक, मजदूर,
रोटी, कपड़ा और मकान
भूत, भविष्य और वर्तमान।
कैसा आत्महंता दांव लगाया है
पौ बारह।
इतिहास अपने को दुहरा रहा
सकल विश्व काँप रहा।
कृष्ण कहाँ हो व्यस्त
ब्रह्मास्त्र हुआ दानव हस्त।
हे दुष्टदलन, उद्धारक आओ
विनष्ट हो रही संसृति बचाओ।
हे चक्रपाणि, सुदर्शन चलाओ।
डॉ स्नेहलता श्रीवास्तव
इंदौर