क्या-क्या ज़ब्त करता है इंसान,
हंसी को होंठो पर आने से पहले ही
जीभ से दबोच लेता है और
पी जाता है हर आंसू
छलकने से पहले
ज़हर की मानिंद
पर ये सब छुपाता किससे है?
उन लोगों से
जो उसके अपने हैं
या उनसे जो पराए हैं।
ग़र अपने हैं तो उनसे छुपाना क्या
और ग़र पराए हैं
तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा उन्हें
उसके हंसने या रोने से?
ज़ब्त करता है इंसान
अपनी हंसी, अपने आंसू
शायद इसलिए कि वो
पहचान ही नहीं पाता कभी
कि ये जो लोग हैं,
उसके अपने हैं या पराए!
ज़ब्त करता है इंसान
अपने ख़्वाब अपनी इच्छाएं,
सिर्फ़ इस कश्मकश में
कि बताए या न बताए,
कि जी नहीं सकता
वो अपने ख़्वाबों के बिना
कि दम घुटता है उसका
ये नकलीपन ओढ़कर
ज़ब्त करता है इंसान अपनी नींद
और बुनता है सुनहरे ख़्वाब।
ख़्वाबों के उस मचान पर चढ़कर
देखता है सुकून की लहलहाती फसल,
पर जब जिम्मेदारियों के ओले
फ़सल रौंद डालते हैं,
तो अपनी मायूसी को भी
ज़ब्त कर लेता है इंसान।
ज़ब्त करता है इंसान अपनी भूख- प्यास,
अपनी इच्छाएं और आस,
करता है संघर्ष एक बेहतर भविष्य के लिए
और जब वह भविष्य
वर्तमान की राजनीति का शिकार हो जाता है
तो अपने गुस्से की ज्वालामुखी को भी
ज़ब्त कर लेता है इंसान।
— प्रिया भारती
सिवान , बिहार