अनकहा

बीच सबके रहती 

कहानी की तरह

अकेले बह जाती

रवानी की तरह…

खोखले से रिश्ते

निभाने को मजबूर

हाड़ जलाता धूप में

दिखा कोई मजदूर…

बची है बस खंडहर

किस्सा सुनाने को

उठ रहा जहाँ बवंडर

तुफान कहलाने को…

किश्तों में कटता है

अनकहा सा दर्द

रिश्तों में चुभता है

अपना सा बेदर्द….

देहरी पर टाट का

लगा हुआ पैबंद

कतरनों से कैसे बने

दबीज़ सा गुलूबंद…

खता किसकी कहें

नसीब की बात लगती

झीनी चादर है ओढ़े 

गरीब की जात लगती…

गहराई आंँखों की

समझना कौन चाहे

होगें  दर्द  के  नगमें

अब पढ़ना कौन चाहे…

✍️

सपना चन्द्रा

कहलगाँव भागलपुर बिहार