कुछ तुम कम करो कुछ हम करें ।
आओ नफ़रत को कुछ कम करें ।
मर रहीं बेवजह इंसानियत हमारी
शर्म है तो आँखों को कुछ नम करें ।
दुनिया में फैला सब कुछ सबका है ।
कोई छोटा ना कोई बड़ा तबका है ।
जो कुछ सबको मिल रहा दुनिया में
देखा जाए तो सब कुछ उस रब का है ।
भेदभाव नहीं करता जब देने वाला ।
भेदभाव तब क्यों करता लेने वाला ।
जबकि सबके हिस्से की रोजी पर
श्रम लिखा है वो मालिक देने वाला ।
छीन रहा मानव-मानव की हिस्सेदारी ।
कैसी चल रही दुनियाभर में रंगदारी ?
हक के सिंहासन पर वो बैठेगा कैसे ?
जिसकी श्रम में तनिक नहीं भागेदारी ।
हिस्सा लूट रहा बन भेड़िया शिकारी ।
रंग बदल बन बैठा कैसे अत्याचारी ?
सह रहा क्यों मेहनतकशों की टोली
जानता शोषण की जड़ है व्यभिचारी ।
तेरी मेरी सबकी अपनी कमजोरी है ।
नाश होना इसका बहुत जरूरी है ।
दस्तक दे रही नई क्रांति दरवाजे पर
क्यों नहीं उठते कैसी आई मजबूरी है ?
कब तक अपनी इज़्ज़त लुटवाओगे ?
क्यों हक की अर्थी गैरों से उठवाओगे ?
शर्म करो उठ जाओ नींद भगाने को
कब तक कायर बुजदिल कहवाओगे ?
कब तक भूखा सोएगा कुछ तो बोल ?
गूँगा बनकर क्यों है मुँह को तो खोल ?
फूँकेगा कब तू गैरों की बेसुरी बाँसुरी
कब बजाएगा क्रांति की अपनी ढोल ?
एक दूजे के कंधे पर अपना हाथ धरो ।
चढ़ सीने पर अधिकारों की बात करो ।
मजदूरों की ताकत को सबने देखा है
आओ शोषण पर मिलकर घात करो ।
उठो धरा से सबकी भूख मिटानी है ।
नफ़रत की लंका में आग लगानी है ।
बाँध कफन पग बढ़ाकर मंज़िल पर
नर-नारी को फिर से आज जगानी है ।
जन-जन में नई क्रांति जब आएगी ।
तब मानवता की इज़्ज़त बच पाएगी ।
सघन घनेरी तिमिरांचल की रातों से
हँसती ऊषा खुशियों को ले आएगी ।
मर जाएगा श्रम चिथड़े पहने-पहने ।
कब पहनेगा श्रम इज़्ज़त के गहने ?
रोते श्रम का दुख सहन नहीं हो पाता
तूँ सह मैं कवि मुझे नहीं अब सहने ।
जनवादी कवि
एम•एस•अंसारी”बेबस”
गार्डेन रीच कोलकाता