नज़्म 

ये मुनासिब नहीं, की हम तुमसे पर्दा करे

तकल्लुफ हटेगा नही, बात आगे बढ़ेगी नही ।

किस्से, कहानियों में तेरा, मेरा जिक्र होगा

किताबों में दर्ज होंगे, फिर हमारे सफ़रनामे ।

झील के पानी में, देखा था अक्स तेरा, मेरा

मुझ सा ‘तू’ लग रहा था, तुझ सी ‘मैं’ लग रही थी ।

अक्सर तेरी बेरुखी, जब दिल चीर देती है मेरा

सोचती हूँ, इतने बुरे को ही क्यों बनाया मैने मेरा ।

तेरी याद कहर बनकर, ख्वाबों पे कब्जा है करती

बेदारी में, ख्याल को तकिया बना, फिर हम है सोते ।

रूख़्सत कर दिया उसको, जो था कभी सिर्फ मेरा

कुछ रिश्तों के अंजाम, मुकद्दर ऐसे क्यों है तय करते ।

रूपल उपाध्याय ‘ मन बंजारा ‘

बडौदा ( गुजरात )

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