ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

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उफ्फ़ ये तपन , ये तपिश 

ये उमस , ये छटपटाहट

ये बेचैनी से भरे दिन ,करवटों में बीतती रातें 

सुलगतें अरमान फिर राख होते जाते सपने 

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

ये गरमी ,ये राजनीतिक सरगरमी 

ये अनर्गल चर्चाएँ और ये नपुसंक गुस्सा 

नियम बनती फिर ढहती 

ये नित नयी फ़रमानो की फरेबी दुनिया 

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

त्रस्त विहंग  ,व्याकुल पशु 

झुलसते जाते वृक्ष और पौधे 

गर्द भरे गुबार के आवरण से ढंकते जाते

घर – दुकान  ,बाग – बगीचे  और अट्टालिकाएं

ये आषाढ़ का महिना और ये  दिल्ली 

बारिश के इंतज़ार में 

पसीने से लथपथ होता निढाल शरीर 

नये-नये उपायों में छिजता 

हाड़-मांस का पुतला 

झुठे अश्वासन में बिकता जाता 

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

बरसात के बुंदो से भीगती 

भुमि की सुंगध के इंतज़ार में 

अपने ही स्वेद कणों के दुर्गंध में लीन होती  

दिल्ली की बेचारी जनता  

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

सड़कों पर दौड़ता ,

रोजमर्रा की जरूरत को पुरा करने की जद्दोजहद में कुलबुलाता ,

महामारी से ज्यादा  पेट की भुख से डरता जनसमुह

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

छलावों की मानिंद

प्रतिदिन आसमान में आते , छाते और जाते

उम्मीद के बादलों को टुकुर-टुकुर ताकता  

आशा की किरण संजोता यह वृहद जनसमुदाय 

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

मुंह चिढ़ाती मुसलाधार बरखा की तस्वीरें

और आती प्रति दिन नये स्थानों से बाढ़ की खबरें  

देख – देख इसे कुटिल मुस्कान से सजती जाती

ये कशमकश से भरे अवसाद के दिवस

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

नित नई चाल , ढाल ,काल में ढलते 

कितने ही आकाओं के इशारों में नाचते

हर पल अन्जाने खौफ के मंजर में 

दमघोंटू सांस नथुनों में भरते

यह शहर और इसके वासिंदे 

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली 

कहतें हैं दिल्ली दिलवालों की है

होगी जनाब दिलवालों की

इतनी बेखुदी ,इतनी बेदिली और कौन झेल सकता है जनाब

ये आषाढ़ का महिना और ये दिल्ली

संध्या  नन्दी 

नई दिल्ली