शांत मन से एकांत में किताबें पढ़ने का सुख अलग ही होता है, लेकिन कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती हैं जो बड़े प्यार से आपको गुदगुदा कर ऐसी चिकोटी काटती हैं कि आपके शांत मन को अस्थिर कर एक ऐसी अजीब-सी हलचल मचा देती हैं और फ़िर आप देर तक सोचने को मजबूर हो जाते हैं। उसमें भी यह कार्य अच्छे व्यंग्यकार बख़ूबी संपन्न करते हैं। एक व्यंग्यकार एक अच्छा सोशल इंजीनियर होता है, जो समाज की विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए रेखांकित कर समाज को एक आदर्श मॉडल देने की चाह रखता है। वो एक ऐसा सर्जन होता है जो बिना किसी औजार के मात्र अपनी कलम से ही बड़े से बड़े नासूरों की सर्जरी करनी चाहता है। अपने परिवेश से असंतुष्ट रह उसको अपनी वक्रता की धार में मोतियों की तरह चमका देने को उत्सुक भी रहता है और प्रयत्नशील भी। वह अपनी लेखनी से पाठकों के मर्म को, उनके अंत:जगत् को झंकृत कर डालता है और सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित करता है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रो. हरीश नवल जी के शब्दों में, ‘व्यंग्य का उद्देश्य मनोरंजन करना नहीं अपितु जागृत करना है। व्यंग्य का पाठक विशिष्ट होता है। ऐसे में व्यंग्यकार में बौद्धिक गाम्भीर्य होना चाहिए। व्यंग्यकार में सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने की क्षमता होनी चाहिए। व्यंग्य सामाजिक बदलाव के लिए वैचारिक संघर्ष को पल्लवित करे। सम्प्रेषणीय व्यंग्य अनुभूति की पीड़ा से उपजता है। व्यंग्य को सम्प्रेषणीय बनाने में शिल्प, अच्छी व चुटीली भाषा की ज़रूरत होती है’। डॉ. रामरेखा का सद्यः प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह ‘एक लेखक की नरक यात्रा’ यद्यपि उनका पहला संग्रह है परंतु यह प्रथम दृष्टया ही प्रो. नवल जी की इस कसौटी पर ख़रा उतरता प्रतीत होता है। हिन्दी के श्रेष्ठ विद्वान्, चिंतक विचारक श्री रामधारी सिंह दिवाकर एवं डॉ. सीताराम सिंह प्रभंजन (पूर्व प्राचार्य) द्वारा लिखित भूमिकाएं संग्रह के उद्देश्य को सुस्पष्ट कर उसकी गरिमा में श्रीवृद्धि करती हैं। डॉ. रामरेखा जी का एक चिकित्सक के रूप में विभिन्न सामाजिक और मानसिक स्तरों के व्यक्तियों से संपर्क और संवाद होता रहा है। उन्होंने उनकी पीड़ा को, उनके दुःख-दर्दों और अभावों को क़रीब से देखा और महसूस किया है और अपने इन व्यंग्य प्रधान निबन्धों में मानवतावादी दृष्टिकोण से उन्हें रचना के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त सामाजिक और राजनीतिक की जटिल बुनावट और उसकी बारीकियों की अच्छी समझ उन्हें अपने ससुर इतिहासविद् पूर्व सांसद व मंत्री स्व. डॉ. भोला सिंह जी के सान्निध्य में रहकर सहज सुलभ हुई, जिसे उन्होंने आत्मसात कर न केवल अपने लेखन अपितु जीवन में भी उपयोग किया है। अपने माता-पिता के साथ-साथ इस पुस्तक का समर्पण उन्हें कर उन्होंने अपनी प्रीति और सम्मान भाव का बख़ूबी निर्वाह किया है।
पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य निबन्ध ‘एक लेखक की नरक यात्रा’ में हिन्दी के लेखक और किसान की दारुण स्थिति पर यह पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—“प्रभु क्यों परीक्षा ले रहे हैं? मैं तो लेखक हूँ। पृथ्वी का एकमात्र प्राणी हूँ जो हर परीक्षा में फेल होने के लिए बना है। यदि ऐसी परीक्षा इस कमजोर वर्ग के प्राणी की लेंगे तो यह भी डायनासोर की तरह धरती से विलुप्त हो जाएगा।
इसी तरह एक अन्य व्यंग्य निबन्ध ‘बिहार में बहार है’ में वो सरकार और शिक्षा-तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर तंज कसते हुए दिखते हैं—“भुसगोल विद्यार्थी टॉप कर गया। एक विद्यार्थी बिना परीक्षा में बैठे टॉप हो गया। एक विद्यार्थी कभी कॉलेज का मुँह नहीं देखा, परीक्षा दी तो मेधा सूचि में ऊपर शोभायमान हो गया। विरोधियों को और कैसी बहार चाहिए?…आप अपनी छाती पर हाथ रखकर बोलिए कि ऐसा कोई राज्य है भारत में जहाँ विद्यार्थियों को इतनी छूट मिलती हो।…ऐसी बहार कहीं और है भी क्या? ऐसी आज़ादी और कहाँ? गलती से अध्यक्ष जी को जेल हो गई तो भी क्या बात है? थेथर की तरह कहेंगे कि भगवान कृष्ण का जन्म जेल में ही तो हुआ था। कुछ दिन वहाँ राजभोग करने के बाद जब बाहर निकलेंगे, तो फूल-माला लेकर जन सैलाब उनके स्वागत में उमड़ पड़ेगा और बैंड-बाजा की धुन पर नाचते हुए जनता-जनार्दन का मन थिरक उठेगा—‘बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है’। देखते ही देखते अध्यक्ष जी अगले चुनाव में किस पार्टी से विधायक या सांसद बन जाएँगे।”
अपनी टीआरपी और सबसे पहले ख़बर दिखाने की होड़ वाली आज की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भला कौन नहीं जानता! आज के मानव की संवेदनहीनता पर कटाक्ष करते हुए ‘बाढ़ राहत शिविर’ से यह पंक्तियाँ आपको जानी पहचानी लगेंगी—“बाढ़ के साथ ही फ़ोटोग्राफ़र और पत्रकारों की भी बाढ़ आ गई है। वे आपदा को कवर कर रहे हैं। नाक तक डूबे हुए आदमी को कवर फ़ोटो बनाएँगे-‘थोड़ा टेढ़ा हो जाइये। माइक को नाक में सटा लीजिए।
आज इस वैश्वीकरण की आधुनिकता में नीतिपरक सूत्र अब या तो किताबों में मिलते हैं या सरकारी कार्यालयों में दीवारों पर शोभायमान दिखते हैं। या फ़िर हम उन्हें व्हात्सप्प पर ‘गुड मॉर्निंग मैसेज’ में भले ही हर सुबह भेज देते हों पर हमने उन्हें अपने दैनिक व्यवहार में लाना कब का छोड़ दिया है, अब तो यह ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ के कार्य ही आते हैं।
कुल मिलाकर तमाम व्यंग्य अत्यंत मनोहारी और धारदार हैं, जो बरबस ही पाठक का ध्यान अपनी ओर खींचने में सक्षम है; उसमें ठहराव भी है और अर्थ की गरिमापूर्ण गहराई भी। संक्रमण के इस युग में डॉ. रामरेखा जी का लेखन नैतिक मूल्यों और संस्कारों के प्रति चिंतित और सजग है, यह प्रसन्नता का विषय है। उनके स्वस्थ, यशस्वी और दीर्घ जीवन की कामना करते हुए शत-शत बधाई और कोटि-कोटि शुभकामनाएं देते हुए, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुँअर बेचैन जी के इस शेर के साथ आप सभी से विदा लेते हैं-‘धड़कने चुप हैं अधर मौन, निगाहें गूँगी/जिंदगी और तुझे कैसे पुकारा जाए।’
डॉ. सारिका मुकेश
(तमिलनाडू)
पुस्तक का नाम-एक लेखक की नरक यात्रा (व्यंग्य-संग्रह)
लेखक-डॉ रामरेखा
प्रकाशन-प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली-110 002
संस्करण-प्रथम, दिसंबर 2021
मूल्य-250/-रू, पृष्ठ-120