तुम्हारी-हमारी चिंताएं

तुम तकिया, लिहाफ

चादर, रजाई में परेशान हो

आज किस रंग का सजे बिछावन पर

इसकी ही चिंता लगी है

चिंता इस बात की भी है कि क्या खाएं

आज नाश्ते में

लंच में क्या बने

और डिनर कुछ ऐसा जो हो लंच से अलग

पूरी मीनू तैयार है तुम्हारी।

बरसात में टप टप टपकते ओरियानी

सिर पर हिलता हुआ पलानी

टिन की टूटी छत

बिछावन पर सदर-बदर पानी

घर का हर हिस्सा भींगा हुआ

क्या कमरा क्या चुहानी

तुम्हें तो सावन में कजरी

गाने हैं, सुनाने हैं,

और झूला याद आने हैं

पर नहीं पढ़ सकते तुम

हमारे मड़ई के दर्द को

उनकी बेबसी की कजरी

हमारे घर के उस घुनाये खम्भे को

जो हमारी मुफलिसी की कहानी कहता है

तुम्हें इंतजार है अपने मनभावन की

हमें इंतजार है  सावन की

ताकि हो सके रोपनी 

और उग सके धान

जिसके बदौलत तुम्हारी थाली में

आ सके बिरयानी और पुलाव

जीरा राइस या प्लेन राइस

बहुत अंतर है तुम्हारी-हमारी चिंताओं में

तुम्हारी चिंता भरे में हैं

हमारी चिंता भरने में है।

— सन्तोष पटेल

नई दिल्ली