वह स्त्री
अब नहीं घुटती
रहती है
अंदर ही अंदर
वह अपने अधिकार
मांगती नहीं
छीन लेती है
वह अब घर में
बंद नहीं रहती
खुले केश लहराते हुए
बाज़ार में चहलकदमी
करती रहती है
वह अब किसी की
दासी बनकर
नहीं रहती
अपने घर की
स्वामिनी होती है
वह अब उस जीवन को
जीती है भरपूर
जिसमें राग-रंग की
चहल-पहल होती है
वह स्त्री
अब वह स्त्री है
जिसके रोम-रोम में
स्त्रीत्व की गरिमा
छलछलाती रहती है ।
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-दुर्गाप्रसाद झाला
मो. 9407381651 .