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हे नारी, तू लज्जित ना हो
लज्जित होना तेरा धर्म नहीं है
तू तो कभी भी लज्जित
हो ही नहीं सकती हैं
जो सृजनकर्ता हो
जो खुद अन्नपूर्णा हो
जिसके आंचल से क्षुधा शांत होती हो
जिसकी नाभि से खुद ईश्वर भी
अवतार लेने को विवश हो
वो नारी कैसे लज्जित हो सकती है ?
तुम तो ईश्वर की बनाई हुई
अनुपम कलाकृति हो
धरा जैसे धीर गंभीर
सबकी आश्रय दाता हो
प्रेम करुणा दया से लिपटा हुआ ही
तेरा ये अस्तित्व है
तुम हो तो यह धरा भी गौरवान्वित है
जिस घर में तेरा वास नहीं है
उस घर में
ईश्वर का भी वास नहीं होता
तुम तो धरा पर ईश्वर द्वारा भेजी गई अद्भुत सृजनकर्ता हो
प्रेम को छलने वाला पुरुष इंद्र हो सकता है ..!!
पर स्त्री के मन का प्रेम
सिर्फ इबादत होता है
इक स्त्री जब प्रेम पर
खुलकर अभिव्यक्ति देती है
तो … उसे हमेशा चुप और
उसके चरित्र के साथ
क्यों जोड़ दिया जाता है
स्त्रियों ने जौहर किया
सतीत्व के लिए
तो सब ने खुलकर उनका गुणगान किया
जब स्त्रियों ने प्रेम में रहना चाहा
और कुछ रस्में निभाने के लिए
अपने ही जन्मदाता से जब
उसने इजाजत मांगी
तो सबने उनके सपनों का
मिलकर गला घोंट दिया ..!!
प्रेम पाप है
तुम्हारे लिए नहीं है
फिर भी ये सब किया तो
इस समाज में तुम चरित्रहीन कहलाओगी
ये बताया गया … ….क्यों ..?
ओने-पौने किसी के साथ
ब्याह के नाम पर बांध दिया जाता है
हमेशा के लिए उसे …. क्यों ?
गला घोट दिया जाता है उसका
और उसके सपनों का
आखिर क्यों … ?
काश !! इक औरत को भी
कभी प्रेम का वो अधिकार मिले
जैसे कभी … सावित्री को सत्यवान
और शकुंतला को प्रेम में दुष्यंत मिले
तब नारियों पर ये बंदिशें नहीं थी
तब वो स्वतंत्र थी
अपना मनचाहा वर मांगने को
वो भी अपने ही जन्मदाता से
तब .. वो भी
गौरवान्वित कहलाते थे समाज में !!
प्रेम तो ईश्वरीय वरदान है
फिर उनसे जीने का ये हक
क्यूं छीन लिया जाता है
हर बार फ़र्ज़ के नाम पर
इक नारी कुर्बान कर दी जाती है क्यों ?
प्रेम के खाली होते मन को
वो हृदय में हमेशा के लिए सहेज लेती है
अधूरे रिश्ते का कड़वा सच
जी लेती है वो जीवनभर
एक पूर्णनारी बनकर
सीने में दफ़न किए हुए
अपने प्रेम को
पर कलंकित और लज्जा पूर्ण नहीं
प्रेम को एक इबादत बनाकर!!
● *प्रतिभा श्रीवास्तव*, लखनऊ (उ.प्र.)