गांव की याद में 

लगता है कुछ विस्मृत है,

नगर लगता बेगाना है,

मन कहता है, कुछ सुधि ले,

तुझे एक दिन वापस जाना है,

कभी-कभी तो शून्य में से

स्पष्ट पुकार यह आती है,

मेरी माटी मुझे बुलाती है,

मेरी माटी मुझे बुलाती है।

कहती माटी रोते-रोते,

कितने ही ऋतुएं बीत गईं,

इतना रोई,रोते-रोते,

मेरी आखें भी रीत गईं,

संतति क्या अपनी माता को,

इस तरह कभी बिसराती हैं?

मेरी माटी मुझे बुलाती है।

क्यों और कैसे भूल गया,

माटी का मुझपर है जो ऋण,

गांव मेरा बस अपना है,

सुहृदं है उसका हर एक तृण,

उधर से आती वायु भी,

गीत उसी के गाती है,

मेरी माटी मुझे बुलाती है।

दादा के अंक में सुने थे जो,

हैं याद अभी तक वह किस्से,

मन मेरा तो बांटे न बंटे,

भूमि के यद्यपि हुए हिस्से,

सुना है मैंने बुजुर्गों से,

माटी ही सबकी थाती है,

मेरी माटी मुझे बुलाती है।

– रजनीश तिवारी

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