दिन कभी तो निकलेगा

“काली रात मावस की,

एक पंछी एकाकी।

पंख फड़फड़ाता था,

दूर तलक जाता था।

राह नहीं पाता था,

फिर से लौट आता था।

रात के अँधेरे में, 

उस तिमिर घनेरे में। 

नीड़ तक पहुँच जाना, 

साथियों से मिल पाना।

बात बहुत भारी थी,

यामिनी अँधियारी थी।

वेग था हवाओं का,

बोध ना दिशाओं का।

पंछी थक जाएगा,

धरती पर आएगा।

नीड़ तो न पाएगा,

प्राण ही गँवाएगा।

चिंतन की घड़ियाँ थीं,

निर्णय का मौका था।

पंछी को गिरना है,

मैने ये सोचा था।

उधर रात का पंछी,

कर्म में तल्लीन रहा।

अपनी पूरी शक्ति जुटा,

हौसले के पंख लगा।

उड़ता रहा उड़ता रहा,

यामिनी से लड़ता रहा।

थकी-थकी आँखोँ से,

श्वेत-धवल पाँखों से।

रात को तो ढलना था,

सूर्य भी निकलना था।

काली रात हार गई,

भोर की किरण आई।

रात के परिन्दे की,

रंग फिर लगन लाई।

उसने नीड़ पा ही लिया,

रात को परास्त किया।

सोचता हूँ यदि पंछी,

शक्ति ना जुटा पाता।

पूर्व रात ढलने के,

लस्त हो के गिर जाता।

इससे पता चलता है,

बस ये भेद खुलता है।

रात कितनी काली हो,

राह कष्ट वाली हो।

वेग भी हवा का हो,

बोध ना दिशा का हो।

पंख फड़फड़ाने से,

शक्ति आज़माने से।

नीड़ तक पहुँच जाना,

साथियों से मिल पाना।

कोई बड़ी बात नहीं,

अंतहीन रात नहीं।

मेरी आस के पंछी!

रात से न डर जाना।

आती हुई मारुत के,

वेग से न घबराना।

कर्म पथ पे रह के अटल,

शक्ति जुटा उड़ता चल।

माना रात काली है,

राह कष्ट वाली है।

जान ले बाधा का मेरू,

हौसलों से पिघलेगा।

रात कितनी काली हो,

दिन कभी तो निकलेगा।।

           ■ प्रणय प्रभात ■

           श्योपुर (मध्यप्रदेश)

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