रोटियां!
बनाई जाती हैं खाने के लिए
कुछ बेचे जाते, खरीदे जाते हैं कुछ
हर रोटी का अपना मुकद्दर होता है
मगर कुछ रोटियां जो फेंकी जाती है ….
भूख की कीमत बयां करती है रोटियां।।
रोटियां!
खामोश रहती है रोटियां, मगर …
हर निवाले के साथ, भूख बोलता है
बेचे और खरीदी जाने पर भी खामोश रहती
केवल चीखती है रोटियां, कचड़े के डब्बे में
बयां करती है आदमी-आदमी का फर्क …
रोटियां!
भूख से केवल आदमी हीं नहीं तड़पता
रोती है रोटियां भी कभी कभी
बाट जोहती थालियां रोटी के लिए,
क्रंदन रोटियों का सुनता कौन?
संगीत तो कभी सिसकी भरती है रोटियां।।
रोटियां!
भूख लिए आंखों को निहारती है
अमीर का गुमान, गरीब का ईमान
रोटियों के खातिर तरसते बच्चों को देखकर
अक्सर रोटियां चीत्कार उठती –
भूल जाता आदमी औकात, पेट भरने के बाद।।
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अजय कुमार झा “तिरहुतिया”
(शिक्षक एवं साहित्यकार)
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)