जगमग दीपोत्सव की
खुशियों वाली
रात की अगली सुबह सुबह
गरीब बेसहारा बच्चे
नन्हे फटे हाल,
बड़े बड़े घरों के लोहे के
बड़े बड़े दरवाजे के सामने,
बुझे और फूटे हुए
पटाखों के
कागज के बिखरे
हुए अवशेषों से
और अध् जलि
फुल झड़ीयों में
रंग बिरंगी
रोशनी खोजते,
फटे हाल बच्चे
दिवाली के दूसरे दिन
किसी अभिजात्य कॉलोनी
में फटे बे हाल
घूमते हुए दिखाई दे जाएंगे,
अर्धनग्न इन नन्हे
बच्चों की किस्मत में
यह अध् जले पटाखे,
फुलझड़ियां
और कभी कभी
बम भी मिल जाया करते हैं,
दिवाली की सौगात समझ
खुश हो कर
शुभ दीपावली
मनाते
इन्ही पटाखों के
टुकड़ों के साथ
दिवाली का दिन
मनाने निकल पड़ते हैं |
इन्हें चमकदार,
रोशनी वाली दिवाली,
शायद नसीब नहीं होती|
और नसीब नहीं होते,
दिवाली में आए
रसदार मीठे फल,
या फिर स्वाद भरी
सूखे मेवे से
लिपटी मिठाईयां,
नए-नए रंगीन महंगे कपड़े,
इन्हें नसीब होते हैं चंद,
पुराने फटे तन को ढकने
कपड़ों के चीथड़े ,
जो इनके तन को
कई जगह से
खुला भी छोड़ देते हैं,
कहां है वह सब
बड़े बड़े
दावे करने वाले
क्लब, संगठन,
और खोखले मठाधीशों
के शासकीय वायदे,
जो जोर शोर से एलान करते हैं
की अब गरीबी इस देश में नहीं आएगी,
यह बच्चे धीरे-धीरे
ऐसे ही,
बुझी हुई रोशनी
की तलाश में
बड़े हो जाते हैं
और तलाशते हैं,
दो जून की चंद रोटियां
मटमैला गंध युक्त
पानी पीने को,
इनकी दिवाली
कभी रंग बिरंगी
रोशनी वाली
खुशियां देने वाली
नहीं होती है,
इन्हें तो बस
बाल श्रम ही अपनी
जिंदगी में नसीब होता है,
और फिर शुरू होता है,
मजदूरी और संघर्ष का दौर
नहीं कह पाते एक दूसरे को
हैप्पी दिवाली या
दिवाली की
बहुत-बहुत बधाई,
शुभकामनाएं,
यह शब्द सिर्फ
दूसरे और
बेहद खुशहाल, धनाढ्य,
लोगों और बच्चों से ही
इनके कान तृप्त हो जाते हैं
शुभ दीवाली के शब्दों से||
संजीव ठाकुर,
चौबे कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़, 9009 415 415,