स्त्री सबसे पहले उठती
है , इस धरा पर
और उठकर झाडू
बुहारू करती है
फिर बर्तन बासन माँजती है
बर्तनों के खटपट और
शोर से जागता है ,
सूरज
धान फटकती स्त्री
फटक रही होती है
बलाओं और बीमारियों को
वो झटक रही होती है
दु:खों को ..
बर्तन माँजती
स्त्री माँज रही होती है
परिवार को ..
वो माँज रही होती
है , घर के लोगों का
का फीका पड़ा आत्मविश्वास
उपले पाथती स्त्री
सेंक रही होती है
धूप को …
अल्पना लगाती स्त्री
रंग रही होती है
धरती ..सजा रही होती
है ,धरा को
चूल्हे पर आग जलाती स्त्री
भर रही होती है
घर का पेट
तवे पर सेंककर रोटियाँ. .
महेश कुमार केशरी
C/O -मेघदूत मार्केट फुसरो
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