हमारे
देश में रोज त्योहार है
रोज मेला है
खासकर
उन बच्चों के लिए
जिनकी आँखों की पटरियों पर
दौड़ती हुई नहीं
दिखलाई पड़ती
अभावों की रेलगाड़ियाँ कभी
छटपटाकर दम तोड़ते
हुए नहीं देखा गया
उनकी ख्वाहिशों को कभी
उनकी इच्छाओं के
घरौदें में सूर्य सदैव निकलता रहा
उनकी किलकारियाँ
राहु और केतु की नजरों से सदैव दूर रही हैं
घने कोहरे
की ठिठुरती इस
लंबी रात में सोए हुए
इन बच्चों को
महसूस ही न हुआ
वर्तमान की चिंता
भविष्य का भय
दोनों से बेफिक्र
हाथों की रेखाओं पर
सुख ही सुख
लेकिन
इन्हीं की उम्र
के कुछ ऐसे भी बच्चे हैं
जिन्होंने अपने पिता का मुँह कभी नहीं देखा
माँ ने भी मारे शर्म के
उसके पिता से उसका
कभी साक्षात्कार नहीं कराया
स्थितियाँ
चाहे जो भी रही हों
ऐसे मजलूम बच्चों को
गढ़ते वक्त विधाता
निष्ठुर हो गया हो मानो
इनकी हथेलियों पर
सुख की रेखाएँ खींचना
भूल गया हो
या इनके साथ कोई
खिलवाड़ किया हो
यह तो किसी को ठीक ठीक नहीं पता
लेकिन
किस्मत जरूर रूठी है
इनसे
या
प्रारब्ध है इनका
बात चाहे जो भी हो
लेकिन
आत्मा को झकझोरती
जरूर है
कि जिन बच्चों को
इस भयानक शीत में कंबल की गर्माहट मिलनी चाहिए
वे बच्चे स्टेशन पर
अपना पेट सहलाते हुए
हर आने जाने वाले मुसाफिर में
अपने पिता को ढूंढ़ते हुए
भीख माँग रहे हैं
डॉo सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874