मन का सागर..

मन के सागर मे उठी लहरें

न जाने क्यों मेरे 

मन की दहलीज़

आकर रुक जाती हैं।

मन उड़ना चाहता है 

परिदें की तरह

पर मेरे पंखो को

दहलीज़ दिखा दी जाती है।

मुस्कुराने की भी 

सौ शर्ते होती हैं

ये ही सोच कर 

हँसी छुप जाती है।

समाज़ की सब बातें जब 

मेरे दिल मे पनाह लेती हैं

दिल की सब बातें खुद ही 

बेपनाह हो जाती हैं।

क्यों.बंध जाते हैं हम 

इन दहलीज़ो के दायरों मे

ये ज़िंदगी मुझसे ये ही 

सवाल किये जाती है।

मर्यादा के बंधन मे मेरा 

तन बंध जाता है पर

बेवजह यूँही क्यों मन की 

हसरत बंध जाती है।

दहलीज़ के आगे मेरा 

जीवन शून्य सा लगता है

इस शून्य से मेरी 

कीमत कम हो जाती है।

शब्दो की दहलीज़ से 

ना बांधो मुझे

फिर अर्थ को समझाने मे 

मुश्किल हो जाती है।

बड़ा अजीब सा लगता है 

की इश्क़ मे भी

दहलीज़ हुआ करती है

हम तेरे दिल के दरवाजे से 

ही वापिस मुड़ जाते है

एक बार ही सही पर 

बुला ले मुझको

मैं दहलीज़ हूँ, दरवाजा हूँ, 

पर कोई दीवार नही हूँ।

मैं दहलीज़ हूँ, दरवाजा हूँ,

पर कोई दीवार नही हूँ।

सरिता प्रजापति

दिल्ली