औरत की चीख दब गई है,चारदीवारी में।
उम्र गुजार दी उसने,सिर्फ खातिरदारी में।
जख्म बदन के,नहीं भर पाए हैं अभी तक,
रूह खरोचें छिपा कर ,कहा नहीं हारी मैं।
बहुत दर्दनाक वो मंजर था ,और नारी मैं।
नहीं कोई है सुनने वाला,तभी तो हारी मैं।
चीखों सिसकियों ने भी, दम तोड़ा उसके,
शहर बड़ा, बुजदिलों की संख्या भारी में।
बेजान मूरत बन, रही ,जिंदगी गुजारी मैं।
ईश्वर की सुंदर कृति हूं,शैतानों से हारी मैं।
हैवान बन के ,अस्तित्व को लूटते रहे वो,
लड़ती रही जालिमों से ,आखिर नारी मैं।
जीत जाती जंग, गवाही अभाव हारी मैं।
सब सहा फिर भी बन रही परोपकारी मैं।
खामोश रह अश्रु बन दर्द बह रहा उसका,
नारी सौर्य है अनुठा, पर सृष्टि से हारी मैं।
वीणा वैष्णव रागिनी
राजसमन्द राजस्थान