डॉ. लोकेन्द्रसिंह कोट
रंगों की सभा हुई। राजा, सभासद, आम जन सबका दरबार सजा। सबने मिलकर आपस में बात की कि हम बदरंग या रंगहीन से तो कहीं बेहतर हैं। रंग है तो दुनिया है वर्ना कौन पूछता है, सब कुछ मरघट सा लगता है। रंगों के राजा ने हुंकार भरी और सभी सभासद एक स्वर में हामी भरी कि हम हैं तो जिंदगी है लोगों की…… हम ही श्रेष्ठ हैं……. सर्वश्रेष्ठ है…….. हम ही महान हैं………। अंधा बाॅंटे रेवड़ी आपन-आपन को दे……. अपने मुॅंह मियाॅं मिट्ठू बने बैठे रहे सब के सब और किसी कौने में बैठे काले और सफेद रंग जो अक्सर अपशगुनी बदरंग या रंगहीन की परिभाषा में आ जाते थे……… वे भी कहने को मुस्कुराए……. बुदबुदाए……. सब साले कुएॅं के मंेढक….!!
जब रंग अपनी सियायत रच रहे थे तब हमारे मनसुख लाल रंगरेज कुछ जनाना कपड़ों को रंग में रंगने हेतु अंदर डूबो रहे थे। पास ही उबलते पानी और कई मर्तबानों में अलग-अलग प्रकार के रंग। वैसे तो नए जमाने ने पारम्परिक व्यवसायों की कमर तोड़ दी लेकिन रंगाई का कारोबार मंदा जरूर हुआ पर खत्म नहीं हुआ। इस बार ईद और दीवाली आस-पास ही हैं इसलिए कुछ ज्यादा ही भार आ गया है प्रीतमनगर कस्बे के एकमात्र रंगरेज मनसुख पर। रंगने वाला अकेला और रंग की चाहत सैकड़ो की। मनसुख जानते हैं रंगों की बादशाहत और जनाना कपड़े हैं तो और भी नफासत के साथ क्योंकि उनमें महारानीयत भी अफसाना बुनती है। हर एक स्त्री की चाहत में शामिल होते हैं दस-बीस रंग, उतनी ही बार वे बदलते हैं और उतनी ही बार उनकी चाहतें। अपने कपड़ों की बजाय उन्हे दूसरी के कपड़ों पर ज्यादा ध्यान होता है और यहीं से शुरू होती है मनसुख की सारी मुश्किलें। चार दिन पहले अपने कपडों को बैंगनी रंग रंगने का बोलकर गई निगार आज अपनी कक्षा की सहेली सरला के हल्के बैंगनी रंग के कपड़ों को देख कर बिफर गई। ‘‘क्यों मैंने भी तो यही ‘परपल’ रंग बोला था आपको….. फिर मैरा यह रंग क्यों गहरा है और उसका तो ज्यादा अच्छा दिख रहा है……।’’ मुॅह बना-बना कर और हाथों को नचा-नचा कर बोलने वाली निगार आज प्रचंड आवेग में है। लेकिन मनसुख आदी है इसतरह की वारदातों से और जब तक वह बोलना खत्म नहीं कर देती है वह अपने काम में लगा रहता है और जब निगार ही जोर से चिल्लाती है कि ‘‘सुन रहे हो या नहीं…..’’ तब कहीं जाकर मनसुख उपर मुंडी करता है और लंबी सांस लेकर बोलता है, ‘हाॅं जी सुन रहा हूॅं आपकी बात…… पर जो आप पसंद करके गईं थीं वही तो रंग से रंगा है…… आपने सरला दीदी के कपड़े देखे तो आपको वो अच्छा लगने लगा…… पर अब तो रंग हो गया ना….. निगार बेटा।’’ मनाने की गरज से मनसुख कह देता है, ‘‘आप पर यही फबेगा बिटिया आपका रंग थोड़ा साफ है ना इसलिए…….. और सरला दीदी पर यही क्योंकि वे थोड़ी सी संावली हैं न….।’’ फैंक दिया तुरूप का ईक्का मनसुख ने!!! निगार का सारा गुस्सा यूॅं काफूर हुआ मानों घोड़े के सिर से सिंग। मुॅंह के मुॅंह में ही रह गया गुस्सा और उसी तरह से हाथ नचाते हुए, लार टपकाते हुए बोली, ‘‘आप तो काका बस! जादू है आपके हाथों में….. कितने हुए…… और हाॅं पुराने भी थे कुछ शायद…… पर सब अम्मी देगी शाम को निकलेगी तब देगी।’’ फूल कर कुप्पा हुई निगार कुल्हे मटकाती चल पड़ती है…… उसकी चाल में भी अपने साफ रंग का घमंड षामिल है।
प्रीतमनगर कस्बे जैसा कस्बा है। बन-ठन कर जैसे कोई मजदूर किसी की बारात में शामिल होने जा रहा हो, बस वैसा ही कुछ। देखा जाय तो पुरानी विरासत के तौर पर दो किले, पाॅच बावड़ियाॅं, एक मंदिर और एक सराय है इस कस्बे में। इससे लगता है कि पुराने समय में यह महत्वपूर्ण केन्द्र या बड़ा शहर रहा होगा। लोग तो इसे परमार कालीन बताते हैं और बाद में मुगलों से होते हुए राजगढ़ रियासत और फिर अंग्रजों से होते हुए इस कस्बे के पास वो सबकुछ है जो एक बड़े से बड़े शहर के पास नहीं है। आज इसमें चालीस हजार के आस-पास की जनसंख्या रहती है।
‘रानी किला’ हाॅं! यही नाम है एक किले का और कस्बे के दूसरी ओर है ‘राजा किला।’ जरूर बड़ी तकरार हुई होगी किसी जमाने में राजा और रानी के बीच और बन गए अलग-अलग किले। अब राजा महाराजाओं के झगड़े भी उनके बराबर के ही होते थे। जितना बड़ा अभिमान का रंग उतनी बड़ी तकरार। वैसे कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है लेकिन लोग कयास लगाते हैं। लोग तो मोहब्बत में महल के महल खड़े कर देते थे तो बेवफाई भी महल से कम कुछ बनवा कर मानेगी क्या? खेर जो भी है वो सब किवदंतियों में है।
पुरानी सी एक बावड़ी के पास से होकर जाता है मनसुख रंगरेज के घर का रास्ता, कस्बे के ठीक एक कौने पर। आगे चलकर कुछ पुराने मकान हैं, काली का प्राचीन मंदिर और कुछ खाली जगह। अपने रंगे कपड़े सुखाने के लिए बहुत सारी जगह मनसुख के घर के पीछे है। इसी से लगा है एक तालाब जिसे लोग ‘गधा तलाई’ कहते हैं। पानी की पूर्ति वहीं से होती है और सुखाने के लिए मन भर जगह। तालाब से पीछे खंडहर होता रानी किला कनखियों से झाॅंकता प्रतीत होता है, उसी तरह से शरमाता लगता है जैसे कोई रानी अपने होने वाले राजकुमार को देखती थी।
कहते तो यह भी हैं कि जहाॅं मनसुख का घर है वहीं एक रंगमहल होता था। मनसुख के घर की कई सारी दीवारें अभी भी इसकी गवाह हैं। इत्तफाक है कि रंगमहल अभी भी चरितार्थ होता है। रंगों का कारोबार यहीं से चलता है। पता नहीं कब से और कौनसी पीढ़़़़ी से रंगाई का काम चल रहा है पर मनसुख ने अपने पिता ‘जिणघर’ से ही सीखा यह पुश्तैनी काम। जिणघर और मनसुख के काम में मूलभूत फर्क था, जिणघर के रंगों में षामिल होती थी प्रकृति और मनसुख के रंग थे कृत्रिम, रसायनिक। मनसुख को याद है कि बचपन में जिणघर मजीठ पेड़ की जड़ और बक्कम वृक्ष की छाल रंगों के लिए लाते थे और उनसे रंग बनाते, फिर रचते थे लोगों के सपनों को। पीपल, गूलर और पाकड़ के वृक्ष उन अतिरिक्त रंगों को देते थे जिनको मिलाने से कई और रंग तैयार हो जाते थे। अद्भुत था रंगों का संसार। और वह समय भी अपेक्षाकृत धीमा था। लोगों के पास ढ़ेर सारा समय होता था। कई बार तो दिन काटे नहीं कटते थे। अपने कामों के अलावा लोगों का आपस में घरोपा था, सभी घरों के आंगन मिल जाया करते थे और उनमें समय-समय पर महिला पुरूषों की महफिल सजा करती थी। सबसे बड़ी रंगत थी लोगों के पास संतोष की। उसी के सांए में पलते थे सारे रिश्ते-नाते, तीज-त्यौहार, मान-मनुहार के रंग। विश्वास की डोरियाॅ तो रंगी होती थी ऐसे रंग में कि पंछी, हिरण, चीतल जैसे जानवर लोगों के समीप आकर उनसे ही चबैना ले लेते थे। मनसुख यह सब याद करते-करते सोने की तरह दमक उठता है, उसके मन का रंग खिल-खिल जाता है, एक अलग सी उमंग भर जाती है उसमें।
कृत्रिम रंगों के अंदर मदभेद और मनभेद भी हैं उनके रसायनों में कुछ लोचा है। उनमें रंग तो है लेकिन…… लेकिन उतनी रंगत…… या कह लीजिए उतने फबते नहीं हैं। विश्वास का रंग गहरा नीला लेकिन अब बिल्कुल ही मटमैला हो गया है। आध्यात्म का भी नीला रंग है लेकिन कर्मकांड और बाहरी प्रदर्शन में उलझ कर रह गया है सब कुछ। प्रेम के रंग की लालिमा देह पर जाकर टिक गई है। स्नेह की डोरी धूसर रंग की हो चली है, कोई उसे रंगने की नहीं सोचता है। रंग फिर भी रंगदारी दिखाते हैं, वह अलग से बनावटी लगती है।
प्रीतमनगर नाम से तो रूमानियत झलकाता है लेकिन असली रूमानियत ‘गधा तलाई’ पर ही झलकती है। मनसुख के रंगे सैकडों कपड़ों में लहराते रंग और चमचमाती हुई धूप और पृष्ठभूमि में दूर तक फैला हुआ शरमाता किला……। कई-कई लोगों के रंगो को बनाने-बिगाड़ने वाला किला आज मनसुख के रंगों की बहार कनखियों से रोज देखता है। उसे थोड़ी तो ईष्र्या होती ही होगी अवश्य!
रंगों की भी अपनी बिरादरी होती है ऐसे ही मनसुख के घर में भी हर एक पात्र का एक अलग रंग और ढंग। पत्नी ठहरी कोयले की गठरी और उपर से पूरी नकारात्मक, करेला और नीम चढ़ा। एक लड़का और दो लड़की। लड़का और एक लड़की गई मां पर और एक लड़की गई बाप पर या कहें दादी मां पर जो घमंड के उतंग शिखर पर बैठी जैसे कोई गौरी मेम हो। रंग भी सापेक्ष होते हैं। घर में कुछ सांवले है या फिर काले रंग के हैं और कुछ गौरे हैं तो निशिचत तौर पर सापेक्षवाद के तहत हर पल यह एहसास होता रहेगा कि ये गौरे हैं और हम काले चाहे अब काले इतने भी काले न हों या गौरे उतने भी गौरे न हों। ईश्वर की दी हुई कुदरत में क्या नुक्स निकालना जैसा जुमला हर वक्त उस घर में तैरता रहता है। यह जुमला वैसे ही तैरता है जैसे श्मशान में जाकर लोग कहते हैं, ‘क्या रखा है जिंदगी में…… सब राख हो जाना है….।’ और बाहर आते ही वही ढाक के तीन पात। अब रंगमहल में रहेंगे तो पूरा ड्र्ामा रचेगा……. उसमें नायक, नायिका, खलनायक, चरित्र पात्र सब होंगे तो मनसुख का घर भी वही सब पात्रों से भरा था। आज भी जीवंत है रंगमहल।
मनसुख की पत्नी राधा। हर बात की शुरूवात नहीं से करती है और हर काम में ढेरों कमियाॅं पहले ही ले आती है। उसकी सास तो बोलती है ‘‘काली की जुबान भी पूरी काली…..’’ वैसे ही रंगों का धंधा समय के साथ कमजोर पड़ा है तो पास ही बने प्राचीन काली मंदिर में साल में तीन मेले लगते हैं एक सावन, एक चैत्र और एक शरद की नवरात्रि में। वहाॅं की मान्यता है लोगों में मंदिर के खंबों पर रंग-बिरंगे धागे बाॅंधने का। मन्नत पूरी होने पर एक काला धागा बाॅंधने की परम्परा न जाने कब की चली आ रही है। बस राधा इन मेलों में अपने रंगे रंग-बिरंगे और काले धागे बेचने जाती है। मेलों के अलावा भी हर शुक्रवार को भी वहाॅं लोग आते हैं पूजा-पाठ करने और राधा की दुकान भी चलती रहती है।
मनसुख और राधा के तीन बच्चों में सबसे बड़ा है राधे, उससे छोटी कनक और सबसे छोटी रौनक। छः लोगों का रंगमहल उसमें भी रंगभेद। तीन कहने को गौरे…….. मनसुख, दादी और रौनक। बाकी तीन कहने को काले…….। पर देखा जाय तो राधा तो वास्तव में काली ही थी जैसे कोयला ही रगड़ दिया हो। राधे और कनक सांवले की श्रेणी में थे। दादी का रूतबा अभी भी बरकरार है। उनके अपने रंग-ढंग हैं। पाॅच वक्त की नमाज़ करने वाली दादी का रंगमहल में अपना एक कमरा जिसमें सिर्फ रौनक जा सकती है और कोई नहीं।
दादी भी एक अलग रहस्य है। वे रहमत चाचा की लड़की हैं। रहमत चाचा बहुत बड़े रंगरेज थे और उनका नाम चलता था किसी जमाने में। समय के साथ रहमत चाचा और अभी की दादी और उस समय की ‘अफसाना’ ही रह गए घर में। उनके यहाॅं पुश्तैनी तौर पर काम करते थे मनसुख के पिता जिणघर। अफसाना का निकाह हुआ और चौथे दिन ही उनका दूल्हा अल्लाह को प्यारा हो गया किसी दुर्घटना में। रंगों का काम और रोज तरह-तरह के कपड़े रंगना, रहमत चाचा का हाथ बॅंटाना ही एक मात्र ध्येय रह गया था अफसाना का। जिणघर भी अफसाना को सिखाता था और बताता था कि कौन सा रंग मिलाने से कौन सा रंग बनता है। गुजरते हुए समय ने दो रंगों को मिलाना शुरू कर दिया। समय ने रहमत चाचा को पैरालिसिस ने मूक बना दिया और खटिया पर ला दिया। दोनों तिमारदानी के साथ खूब सेवा करते थे। भगवा और हरा रंग मिलना चाह रहे थे परंतु समाज के धूसर रंग बीच आ-जा रहे थे। एक दिन रहमत चाचा गुजर गए।
धूसर रंग के बादलों से भरा आसमान था और बरसात का दिन ही रहा होगा। जिणघर ने अपने रंगे हाथों का साफ करते हुए अफसाना को कहा था, ‘‘तेरे से ही जिंदगी शुरू होती है और तेरे से ही खत्म। आगे जैसा तू समझे…… सही….।’’ यह कहकर जिणघर बाजार में नए आर्डर लेने चला गया था। दोपहर को लौटा तो देखा चारो तरफ बस लालिमा ही लालिमा। अफसाना ने उस दिन केवल लाल ही लाल रंग के कपडे़ रंगे बाकी रंग बनाए ही नहीं। उस दिन और ज्यादा लाल हो रही थी अफसाना। जिणघर उसके पास गया और बचा हुआ लाल रंग चुपके से अफसाना के उपर डाल दिया। इस ठिठौली से रंगमहल रंगीन हो गया। दोनों रंग उस दिन मिल गए, एक हो गए। सुबह दिन के उजाले में जब उन्होने एक दूसरे को देखा तो दोनों के बदन लाल हो चुके थे, पूरा बिस्तर भी लाल था। अफसाना शरमाई थी और ईशारे से जिणघर को दूसरी तरफ देखने को कहा ताकि वह कपड़े पहन सके।
‘‘तमाम रात नहाया था शहर बारिश में, वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे।’’ दोनों के नाते-रिश्तेदारों, धार्मिक संगठनों ने कुछ समय तक तो खूब उत्पात मचाया लेकिन उतर गए सब धूसर रंग उनकी लालिमा के आगे। मनसुख आ गया था अफसाना की गोद में। उनका घर नही ंसच में रंगमहल था, इंद्रधनुष रचता था। ईद, दिवाली, होली, राखी सब मनते थे। अफसाना पाॅचों वक्त की नमाज़ पढ़ती तो जिणघर भी दिन काली मंदिर जाने से नहीं चुकता था। उसी के यहाॅं से जाते थे सारे मन्नत के धागे और मजारों की चादरें।
मनसुख का हाथ बॅंटाता था राधे। पढ़ा लिखा तो ज्यादा नहीं और उपर से ठहरा मनमौजी। दूसरी ओर मनसुख पूरा कर्मनिष्ठ, लगनशील। दोनों का मिलन थोड़ा अटपटा था परंतु लड़ते-झगड़ते काम चलता रहता था। उधर राधा हमेशा मुॅंह बनाए घरेलु काम करती और दुकान पर जाती थी उसके लिए कनक और रौनक थी। कनक पिता पर केवल रंग से नहीं गई थी लेकिन कर्म में भी उसी की तरह थी। रौनक उसके उलट बिल्कुल उच्छृंखल, चंचल और लापरवाह। बस नैन नक्ष में बहुत तीखी। कनक का रंग जरूर सांवला था परंतु उसके पास एक रूहानी नूर था। मां की अनुपस्थिति में दुकान संभालना इन दोनों के जिम्मे था। कभी रंगने का काम सीजन में ज्यादा आता तो दोनों बहने ही दुकान ही संभालती थी। कनक न हो तो काम ही न चले और दुकान बंद हो जाए क्योंकि रौनक की लापरवाही और अपने पर केन्द्रीत रहने वाली, हर किसी को कुछ भी बोल देना जैसी आदतों से कई लोगों को नाराज कर देती थी। दोनों साथ ही स्कूल जाती थी परंतु रौनक को बड़ी बहन का कोई विशेष लगाव नहीं था। उसमें शुरू से ही अपने रंग का घमंड था। और यह बात-बात पर झलक जाता था।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है रंग हावी होते जाते हैं। कनक को बार-बार आभास होने लगा कि वह उतनी सुंदर नहीं है जितनी रौनक है। मंदिर की दुकान पर बैठे ग्राहक भी रौनक से ही ज्यादा भाव-ताव करते हैं। विशेषकर पुरूष ग्राहक। कनक को यह सब मन में लगता था। रौनक स्वयं में उत्कृष्टता आ जाती और हर कभी वह घमंड के रंग में रंग जाती थी। उम्र की इस दहलीज पर जब लड़कियों को आईने भाते हैं कनक को लगभग नफरत थी आईनों से। रौनक का समय गुजरता था आईनों के सामने। दादी भी रौनक को ही भाव देती है और उससे उसकी सारी उद्ण्डता को यूॅं ही माफ कर देती है। घर में कोई बीमार है, कोई समस्या है रौनक को कोई फिकर नहीं लेकिन कनक जब तक तिमारदारी नहीं करती उसे ठीक नहीं लगता था। घर में भी कोई ग्राहक या मेहमान आते तो रौनक की पूछ-परख ज्यादा होती। कब कनक हाशिए पर हो जाती पता ही नहीं चलता।
गहरे रंगों पर हावी हो रहे थे चटख रंग। श्रावण का मेला लगा था। मन में भी मेले लगे होते हैं ऐसे समय। दोनों बहने बहुत व्यस्त क्योंकि मंदिर पर बहुत भीड़ थी। राधा आज घर के ही काम-काज निपटाने में लगी थी। राधे-मनसुख अपने कामों में व्यस्त। कनक धागे खत्म होने पर नए धागे लटकाती और रौनक हमेशा की तरह कूद-कूद कर कभी इस दुकान पर तो कभी उस दुकान पर बतियाती फिरती। एक बड़ी सी गाड़ी रूकी और उसमें से तीन-चार नौजवान लड़के निकले और देखते ही देखते भरे मेले में से रौनक को उठा लिया और अपनी गाड़ी में डालने लगे। यह सब देखकर कनक पूरी ताकत से भागी और उनसे भिड़ गई। लेकिन वो चार और वह लगभग अकेली, क्योंकि कोई भी दूसरे के फटे में अपना पैर नहीं डालता है। कनक चिल्लाती रही और चंगुल में रौनक भी चिल्लाती रही लेकिन उन्होने गाड़ी में डाला और तेजी से भाग गए। कनक चिल्लाती खड़ी रही हाथा-पाई में उसे हाथ और मुॅंह पर लग गई थी और खून बह रहा था। तुरंत घर की ओर भागी……. सारा वाकिया बताया। बात पुलिस तक पहुॅची तो हुलिए से पता चला कि क्षेत्र के नामी गुंडे का लड़का है जिससे रौनक एक बार बद्तमीजी कर बैठी थी और उसे कह दिया था, ‘‘जा…जा बहुत देखे तेरे जैसे……।’’
बुरी घटनाओं के सिर पैर होते हैं और वे कई लोगों को रंगीन लगती हैं। वे भागती भी बहुत तेज हैं और रंग फैलाती भी बहुत हैं। उनके सिर और पैर में गजब का तारतम्य होता है। परिवार से पहले कुछ धार्मिक संगठन आ गए मैदान में। परिवार का अपना दुख और संगठनों का अपना स्वार्थ। परिवार को जो झेलना पड़ता है वह शायद किसी की कल्पना भी तब तक नहीं बन सकती जब तक उस दौर से न गुजरे। बदनामी समाज में वह स्थान रखती है जो कड़कड़ाती ठंड में निर्वस्त्र बैठने जैसा है।
कई झमेलों से होते हुए मामला जो उभरा वह आश्वर्य से भरा था। रौनक ने पुलिस थाने में बयान दिया कि उसे उठाया नहीं गया, वह बालिग है, रिज़वान से इश्क़ करती है और उसी से निकाह करना चाहती है। मनसुख-राधा के लिए यह सब पहाड़ गिरने जैसा था। हदें तो तब पार हो गई जब पुलिस को गवाही देने दादी आ गई और उसने भी रौनक का साथ दिया। दादी ने लिखवाया यह सब उसकी रजामंदी से हुआ है। अबकी बार पहाड़ नहीं गिरा, पूरा शून्य उभर आया सभी परिजनों के मध्य। घायल कनक के लिए और गहरे घाव कर गया तो मनसुख-राधा, राधे के लिए यह अप्रत्याशित था। जीवन के रंग गहरे लगने लगे, चूभने लगे। केवल रौनक के लिए यह सतरंगी दिन थे। दूसरी ओर परिजनों के लिए अंधेरे के समान काला रंग हाथ लगा। दादी के हाथ जरूर लगा था सुनहरा हरा रंग।
सिर्फ रंग भी दूरियाँ बना सकते हैं, इतना दमखम होता है रंगों में। परिवार देखते ही देखते दो हिस्सो में बँट गया।और समाज भी। दादी रौनक के साथ ही चली गई। रिज़वान ने बड़े से मकान में दोनों को रखा। ज्यादा कुछ हुआ नहीं। शहर में दो दिन कर्फ्यू लगा, पंद्रह दिन धारा 144 लगी। अखबारों के कुछ पेजों पर रौनक, रिज़वान, दादी छाए रहे। हाशिए पर मनसुख-राधा, राधे और कनक भी थे। दोनों परिवारों में अबोला हो गया।
पत्रकारों की चाँदी हो गई। खूब लिए साक्षात्कार, चैनलों पर दिखाया। एक ऐसे परिवार जिसमें हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति एक साथ रहती थी, वे आज विभाजित हैं। भाड़ में भुनने के बाद चने के रंग की तरह सबके रंग हो रहे थे। भुनाना सब जानते थे। राय-मशविरे, तमाम इमाम-पंडित, बुद्धिजीवी लगे रहे बातों में…..परंतु कोई एक राय हुई हो मुश्किल थी। जिस तरीके से संगठनों, समाजों ने इसे खेल बनाया, शंतरज की बिसात बन कर रह गया। शतरंज में खेलते-खेलते एक स्थिति आती है जिसे “स्टेगनेंट” कहते हैं। तो यही हालत थी सबकी। लेकिन परिवार आंतरिक रूप से टूटा था, किसी के पास कुछ कहने को नहीं था परंतु सभी के अंदर भूचाल था। इस भूचाल का भी गहरा धूसर रंग था।
परिवारों का अबोला टूटा पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दादी का इंतकाल हो गया। जनाजे के लिए मनसुख गया। रस्म अदायगी कर लौट आया। कब्र में दफ़न था लाल रंग। मां के खोने का जख्म तो था परंतु नासूर के आगे यह जख्म मैदान में ही नहीं था। यही हाल परिजनों का भी था। लेकिन आसमान में आसमानी रंग उभर आया था।
समय गुजरा अपनी गति से। रिज़वान की गुंडागिर्दी उसके इश्क़ की तरह चारो खाने चित। सारा कारोबार ही गुंडागिर्दी के बलबूते था लेकिन समय किसी का नहीं होता है, जेल की सलाखें। रौनक बेहाल।रंगत उतर गई। उस दिन जेल से बाहर आया था रिज़वान और घर आते ही झगड़ा शुरू। जिस इश्क़ ने एक परिवार को बेरंग का दिया, पूरे शहर को लाल रंग बक्शा, समाज के लोगों के चेहरों को तंबई कर दिया, उस इश्क का रंग सूख गया था। सिर्फ अपनी खुशी के लिए हथियाए गए रंगों का हश्न यही होना था। इश्क़ में पाकीज़गी का रंग मरहूम रह गया था। राैनक को असली रंग अब दिखाई दे रहे थे। इससे पहले वह लगभग वर्णांध थी।
तलाक के बाद रौनक अपने चार बच्चों के साथ मां-बाप के साथ ही रहने लगी। मां-मां होती है, उसी की जिद ने मनसुख को मजबूर किया था। मां, आत्मा, प्रकृति, ईश्वर सभी नीले रंग के होते हैं, कुछ भी हो जाए सबको स्वीकारते हैं। राधा बाहर से काली, नकारात्मक हो परंतु अंदर से वह बेहद नीली थी।
कनक भी ब्याह के लायक कभी की हो गई थी परंतु उसके बाहरी सांवले रंग के कारण कोई भी उसके अंदर के नीले रंग को नहीं देख पाते थे। वैसे भी नीला रंग सबको दिखाई दे जरूरी नहीं है। जब भी कोई कनक को देखने आता तो रौनक को बाहर आने से मना कर दिया जाता। सब कुछ सापेक्ष है और सापेक्षता के सिद्धांत को खत्म करने के लिए यह उपक्रम किया जाता था। खेर एक परिवार से बात बनी। लड़का भी सांवला था। पास ही के विद्युत मंडल में क्लर्क था। ब्याह तय हो गया।
खुशियों के कई रंग होते हैं, इंद्रधनुष की तरह। कनक को यह खुशी थी कि उसके मां-बाप खुश हैं। राधे इसलिए खुश कि अब उसका ब्याह हो पाएगा। रौनक को खुशी थी कि इतने सालों बाद वह वास्तविक खुशी देखेगी। इतनी खुशियाँ देने वाला दिन भी आ गया। अपने सारे रंग लिए। कनक दुल्हन बनी थी और रौनक उसकी झिझक सम्हालने के लिए सहयोगी।
ब्याह की खुशियाँ तैर रही थी कि अचानक दुल्हे के रिश्तेदारों ने प्रश्न उठाया कि उनके साथ धोखा हुआ है। यह सब रौनक की वजह से हुआ। जब उन्हे पता चला कि घर के लोगों ने इस लड़की को जान बूझकर नहीं दिखाया और हमें सांवली लड़की पल्ले बांध रहे हैं। दुल्हन पक्ष ने समझाया भी कि यह शादीशुदा है और चार बच्चे हैं। दुल्हे पक्ष का तर्क था कि फिर छुपाया क्यों गया। बात बड़ गई और अड़ गई। कनक, मनसुख, राधा के चेहरे के रंग उड़ने लगे। मनसुख ने दुल्हे के पैर पकड़ लिए। लेकिन उसका अब नया तर्क था कि आपने बताया ही नहीं कि आपकी मां मुस्लिम थी और एक लड़की आपके यहाँ से भाग गई थी। मनसुख, रिश्तेदारों ने लाख समझाया परंतु रंगों ने फिर बाजी मार ली थी, सापेक्षता का सिद्धांत सफल हो गया था।
चारों तरफ अंधेरा था। अंधेरे में सारे रंग गायब हो जाते हैं। सब उजाले के साथी निकले। मनसुख और राधा रोती हुई कनक को देख रहे थे, उसके आँसुओं का रंग आज नीला था।
रंग से ही फरेब खाते रहे
खुशबुएँ आजमाना भूल गए।
-अंजुम लुधियानवी