बहू हो तो ऐसी

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गाँव के बाहर रमई काका की घास फूस और गन्ने के पत्तों से बनी जो झोपड़ी थी  उनके लिए महल से कम न थी । रमई काका मेरे पिता जी के घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे । पिता जी संध्याकाल में अक्सर वहीं पाए जाते थे । कभी-कभार अम्मा के कहने पर हम भी उन्हें बुलाने पहुँच जाते तो काकी बड़े प्यार से हाथ पकड़कर अंदर घर में बुला लेतीं और कुछ खाने की जिद करने लगतीं ।

        काका के दो बच्चे थे । एक लड़की और एक लड़का । लड़की बड़ी सुंदर और मेहनती थी । काका के साथ अक्सर खेतों में काम करती दिखाई दे जाती । काका और काकी अपने बच्चों से बेइंतहा प्यार करते थे ।

बड़ा खुशहाल और खुशमिज़ाज परिवार था ।

        दोनों बच्चे धीरे- धीरे उस दहलीज पर पहुँच रहे थे जहाँ से अक्सर माता-पिता को उनकी शादी की चिंता सताने लगती है ।

एक दिन काकी ने काका से कहा ,” बिटिया देखते-देखते कब इतनी सयानी हो गई की अब उसके हाथ पीले करने की चिंता हरपल मन को खाए जाती है ।” काका ने स्वीकार्य के स्वर में कहा , ” तुम ठीक कहती हो , पर समस्या सिर पर यह है कि  बिटिया के शादी के लिए इतनी रकम भी नहीं है , बड़ी मेहनत करने पर खेत में इतनी फसल भी नहीं होती कि दो पैसे जोड़ा जाए ।” काकी और काका इसी चिंता में रहते और धीरे-धीरे शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर होने लगे । लड़का भी न काम का न काज का निकला । दिन भर गाँव के लड़कों के साथ घूमता । बात-बात पर काका काकी को घुड़क देता ।

      पिता जी और काका की मेहनत से काका की बिटिया रामरती का विवाह तय हुआ । काका ने थोड़ी सी जमीन साहूकार के यहाँ रेहन रखी और थोड़ा पिता जी से कर्ज लेकर बेटी होने का फर्ज निभाया और रामरती दुल्हन के रूप में सजकर अपने पी मिलन की लालसा ले घर के आँगन को और काकी के आँचल को सूना कर उड़ चली ।

         पिता जी बहुत खुश थे । पर काका-काकी की चिंता अपने निखट्टू पुत्र सुमेर को लेकर बढ़ने लगी । उसमें किसी तरह का बदलाव न देखकर रमई काका एक दिन पिता जी से बोले ,” भाई साहब क्यों न सुमेर की शादी कर दी जाए , शायद बहू के आने से उसमें अपनी जिम्मेदारी का भाव जगे और वह घर गृहस्थी में आकर सुधर जाए ।” पिता जी और काकी न चाहते भी हामी भर दिए । 

          सुमेर के न चाहते हुए भी खुशी-खुशी शादी कर ली । सुन्दर सुशील और संस्कारी बहू के आने से घर का मातमी माहौल बदल तो गया पर सुमेर में कोई बदलाव न आया । 

          समय बीता और काका ने जमाने भर की चिंताओं को काकी के सिर मढ़ कर इस दुनिया को अलविदा कह दी ।

            बहू तो थी बहुत गरीब परिवार से पर संस्कारों से गरीब न थी । इस हालात और अपने पति को सुधारने का बीड़ा उठा ही लिया और एक दिन बड़े कड़े शब्दों में अपनी सास और पति से कहा कि – “अब घर में खाना नहीं बनेगा ।” और हड़िया उल्ट दी । शाम को सुमेर ने बहुत शोर गुल मचाया । गाँव के बड़े बुजुर्गों का जमघट लगा । पिता जी भी पहुँचे । बहू ने सिर पर पल्लू डाल मैदान में खड़ी हो गई और  बड़ी शालीनता से ऐलान कर दिया कि , “कल से मैं अकेले खेत पर जाऊँगी और जरूरत पड़ी तो दूसरे के यहाँ मजूरी भी करूँगी । सास और अपने लिए खाना बनाऊँगी । मैं किसी की नौकर या गुलाम नहीं हूँ ।”

        इतना सुनते ही चारों तरफ से तालियाँ बज उठीं । चारों तरफ चेहमगोईंया होने लगी । पिता जी और मुखिया दादा ने बहू के साहस की सराहना करते हुए भरोसा दिया कि हमारे रहते बहू को हर संभव मदद  मिलेगी । इतनी सांत्वना पाकर बहू ने फिर कहा ,” हम हाथ जोड़कर कहते हैं कि हमें कर्ज के लिए परेशान करने के बजाय थोड़ी-सी मोहलत दी जाए । मैं अपनी मेहनत से कर्ज का एक-एक पाई चुका दूँगी ।”

      दूसरे दिन लोगों ने बहू को खेत पर पाया और सुमेर को पूरे गाँव ने धिक्कारा और यह भी तय किया कि कोई भी सुमेर को न तो अपने दरवाजे पर बैठने देगा और न किसी तरह की मदद करेगा ।

        तिरस्कार और असहयोग का असर यह हुआ कि दूसरे दिन सुमेर खेत पर पहुँचकर अपनी पत्नी से माँफी माँगा और विश्वास दिलाया कि वह उसके कदम से कदम मिलाकर चलेगा और सारी बुराईयों का त्याग कर देगा । 

       इस तरह बहू के इस कदम ने सुमेर को सुधार तो दिया पर गाँव के लोगों को कहने पर मजबूर भी कर दिया कि – “बहू हो तो ऐसी ।”

अब काकी बहुत खुश रहती है और शायद काका की आत्मा को भी शांति मिल गई होगी ।

 एम•एस •अंसारी”बेबस”

कोलकाता पश्चिम बंगाल