अंतर्यात्रा

एकांत= एक+अंत। शब्दार्थ- जहां एक पर ही अंत हो, दूसरा ना हो वह एकांत है। परंतु वास्तव में तो कभी कोई अकेला हो, ऐसा होना संभव कैसे हैं? इस पृथ्वी पर हर स्थान पर प्रकृति तो हमारे चारों ओर है ही। जब हम अकेले होते हैं, तो हमारे साथ हमारा मन होता है, और मन के साथ अनेकों विचार। विचार सकारात्मक या नकारात्मक है, निर्माण या विध्वंस के हैं, इससे हमारी प्रसन्नता या उदासी तय होती है।

         हम अकेलेपन में क्या क्या महसूस करते हैं? प्रकृति की सुंदरता एवं सकारात्मकता को अपने भीतर समा पाते हैं?, दुनिया को दर्शक की भांति देखना, जो जैसा है वैसा स्वीकार करते हुए आनंद में डूबे रहना चुनते हैं, या फिर दुनिया में सम्मिलित होकर अलगावपूर्ण नकारात्मकता से भरकर, दुख एवं नैराश्य को प्राप्त करना चुनते हैं।

    मन के विचारों का यह चुनाव ही, हमारे एकांत में हमें प्रसन्नता या विषाद देता है। दुख का एक मुख्य कारण “अपेक्षाएं” होती है। परिस्थितियों या व्यक्तियों से की गई “अपेक्षाएं”, पूरी न होना दुख देता है, एकांतवास में यदि मन के विचारों पर “अपेक्षाएं” हावी हुई तो हमें दुख, विषाद व नैराश्य प्राप्त होता है, जो मनुष्य को नकारात्मकता की गर्त में पहुंचा देता है।वहीं दूसरी ओर एकांतवास में प्रकृति व आराध्य को करीब पाकर “जो जैसा है वैसा ही” (परिस्थितियां या व्यक्ति) स्वीकार करते हुए परम आनंद को प्राप्त करना, हमें मन की शांति व स्थिरता देता है।जीवन में दर्शक होना परमानंद को उपलब्ध कराता है वहीं दूसरी ओर निर्णयकर्ता (न्यायमूर्ति) बनना, दुख की गहराई में पहुंचाता है।

                               …संजय सिंह चौहान

                        उपनिरीक्षक, इंदौर मध्यप्रदेश