असत्य के सघन अन्धकार में
घिरता है जब सत्य एकाकी
रथ के पहियों के साथ
खंडित होते उस सत्य प्रदीप को
देकर हौसले की आड़ मैं
अस्तित्व असत्य का मिटाने चली हूँ
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
छल,प्रपंच के गहन कुहासे में
छला जाता है जब भोलापन
मारीच के कुटिल दांव से
हरि जाती हैं सीतायें तब
लेकर अँजुरी में विश्वास प्रदीप
कुहासा छल का मिटाने चली हूँ
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
कुटिलतायें धर रूप मन्थरा का
दिखाकर स्वर्णिम स्वप्न लालसा का
कलुषित मातृत्व को जब करती हैं
लज्जित होता है बन्धुत्व भाव तब
लेकर अँजुरी में नेह प्रदीप
गरिमा मातृत्व की बचाने चली हूँ
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
कलि के रुपहले आवरण से
आवृत्त है यह जगत सारा
जहाँ दूध,सिन्दूर व स्नेह बंधन का
सबका ही मोल लगाया जाता
ऐसे निर्मोही,बनिक भव में, मैं
राम से नेह लगाने चली हूँ
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
हो न्याय का राज अखंडित
माताएं हों सौभाग्य से मंडित
भाईचारा व बन्धुत्वभाव से
राष्ट्र मस्तक हो गर्व सज्जित
लेकर अँजुरी में दीप अभिलाष का
राम को धरा पर बुलाने चली हूँ
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
दीपोत्सव मैं मनाने चली हूँ—
डॉ रत्ना मानिक
टेल्को, जमशेदपुर
झारखंड- 831004