पटाखों में मस्ती छुपी, बत्तियाँ जले कम !

पटाखों में मस्ती छुपी, बत्तियाँ जले कम !

कहकहा लगाये खुशियाँ,  ढूँढें  नादा हम !!

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                त्योहारों की तीर्थ स्थली भारत आर्थिक तंगी की मरुभूमि बन कर रह गया है जबकि सरकार का सरोकार मात्र वोट की राजनीति तक अंतर्निहित होने से सीमितता को झेल रहा है। योजनाओं का विनिर्माण छल छद्म के जरीये वोट पाने के लिए होता है, जिसका संबंध मूलभूत विकास से अंशतः होता है, तदनुरूप आजादी के आठवें दशक में अवाम अपनी हालत पर बहे आठ-आठ आंसू को पी कर भूख से भींचने को मजबूर है। पिछले एक साल में खाद्य तेल, एवं पेट्रोल व पेट्रोलियम उत्पाद की आसमान छेदती कीमत से उत्पन्न त्राहिमाम से जन-जीवन का उत्पन्न  वीभत्स रूप  की अभिव्यक्ति शब्द की सीमा से परे हो गया है । मंहगाई एवं बेरोजगारी ने दुर्गा पूजा, दीवाली एवं छठ जैसे महिमामंडित पारंपरिक त्योहारों की खुशियों की हवा निकाल रखी है  फलतः व्यवस्था बनाने में परिजन की नींद हराम हो गयी है । विशेष रूप से असामयिक बेतरतीब बेकारी से चढ़ी तंगी की बुखार से लोग हांफ और कांप रहे हैं, तब संवेदना पंक्तियाँ उकेरती है कि 

गंगा में भी नेता नंगा, देख हुये भंग मोह,

मंहगाई  लेवे  जान, फिर भी ना ले टोह। 

                       क्या देश की जनता इसी दिन के लिए लोकतंत्र का महा पर्व, चुनाव का हिस्सा बनी थी ??? राज्य या केन्द्र सरकार अपने-अपने राजनीतिक उद्देश्य की परिपूर्ति में विनियोग करती है ताकि उन्हें सत्ताधीश होने का अवसर मिलता रहे जबकि वास्तविक सुदृढ़ विकास से संबंध थोड़ा बहुत ही होता है । प्रारंभ में कुछ ज्यादा था पर व्यवसायीकरण के दौर में प्रबंधकीय अनुप्रयोगों ने जन सरोकार संबद्धता को उतरोत्तर न्यून किया है । यह भी स्वीकार्य है कि  कुछ सहुलियत मिली है पर निराशायें भी मिली है । राजनीति अब सेवा का पर्याय नहीं रहा बल्कि उद्योग हो गया है जहाँ प्रबंधकीय सिद्धांतों का प्रयोग इस रूप किया जाता है कि जन सरोकार पर कम से कम खर्च कर अधिक से अधिक समय तक शासन किया जाए, फलस्वरूप जनता के गुण धर्म के अनुसार विनियोग की राशि तय की जाती है। इसी अवधारणा को जी रही भारतीय राजनीति के कारण देश का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है । अतः राजनीतिक हथकंडे की शिकार होती जनता के कंधों पर बेहद बड़ी जिम्मेदारी आन  पड़ी है जिसे भली भांति समझना होगा ! टुकड़ों में मिलने वाला अल्प खुशियों के सुख का मोह त्याग कर समभाव पर आधारित विकास की वृहत्तर परिमित को स्वीकार करना होगा जो मौलिक रूप से पीढी दर पीढी भरोसेमंद हो कर मजबूती से संतुलित सर्वागीण विकास की ओर ले जाए।

                  अन्नदाता कृषक एवं श्रमिक भिक्षुक बन कर जीने को विवश हैं तब भी नेता अभिनय की मुद्रा में भारत देश को मजदूर व किसानों का देश का संबोधन अपने लबों पर लाने से नहीं चूकते । महिमामंडित महिला, नवाकुंर मातृशक्ति शोषण व उत्पीड़न पर आधारित अगणित घटनाओं से मानवता शर्म सार हो रही है पर राजनीति उसे अवसर समझ कर भूनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है, तब विवशता झेलती संवेदना वयां करती है कि 

कहीं हिफाज़त, कहीं राहत, है कहीं फिजूल फितरत इंसान का,

कहीं जलवा, कहीं मलवा बन, बेबस पाया कृति यह भगवान का।

बन शक्ति स्वरूपा बसाया कभी हंसाया तुमने, रूलाया भी कभी,

आया विनाश बारंबार, बनी खिलौना जब-जब तूम सैतान का ।

कुछेक जिम्मेदारी के निर्वहन पर सर्वागीण विकास की दावा से संचालित करती तमाम सरकार की त्रुटिपूर्ण नेतृत्व ने देश को त्राशदी की ओर लाया है जिससे हमारी अर्थव्यवस्था खोखली  एवं विधि व्यवस्था भ्रष्टाचार का शिकार होती रही है । वाणिज्य व्यापार एवं उद्योग को उन्नति के जिस मुकाम पर होना चाहिए आज उस पर उस अपेक्षित रूप में नहीं है । सार्वजनिक क्षेत्रों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवहन व पर्यवटन में नीजिकरण बेतरतीब ढंग से पाँव पसारते जा रहा है । यहाँ विदित है कि जनता की इमानदारी एवं कर्तव्य निष्ठा की छवि धूमिल रही है । तब आहत संवेदना इन मिसरों में फूट पड़ती है कि 

सड़क  हूँ  !  कोई  खैराती  गोदाम  नहीं !

चले खास ही केवल मुझ पर, आम नहीँ !! 

       गड्ढे तो आते – जाते  राहगीरों की निशानी है !

       भरना तत्काल जिसे, अजनबी का काम नहीं !!

अतः देश की सुदृढ अर्थव्यवस्था, सभ्य समाज विनिर्माण, समुचित न्याय व्यवस्था हेतु सरकार जनहित को सर्वोपरि मानते हुए कार्य करे जो विश्व बंधुत्व भाव संग अन्य देशों के साथ  कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ते हुए अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण रखते हुए अखण्ड भारत की परिकल्पना से ओत-प्रोत हो विश्व गुरू बने रहने में मददगार साबित हो, जिसमें जनता एवं सरकार की सापेक्षिक जिम्मेदारी के मातहत महत्वपूर्ण भूमिका अपेक्षित है ।

                                          विनसा “विवेका”

                                     ( जमशेदपुर, झारखंड )