धूप बुनते दिन…

आ गए 

गोरे करों से 

धूप बुनते दिन।

तितलियों संग

बाग, वन में

फूल चुनते दिन।।

गुलमोहर, गुलनार

गुल मेहंदी  लगी खिलने।

शाल ओढ़े इक किरन

अाई सुबह मिलने।

बैठकर

एकांत में फिर

गीत गुनते दिन।। अा गए –+

चांदनी अब झील में

उतरी नहाती है।

शरद अाई, शिशिर अाई

गुनगुनाती है।

प्यार के

संतूर पर

संगीत सुनते दिन।। अा गए —-

खजनों के दल चहक कर

आ गए हैं फिर।

फूल गेंदे के सुहाने

छा गए हैं फिर।

अा गए 

जैसे जुलाहे

रूई धुनते दिन।।

आ गए 

गोरे करों से

धूप बुनते दिन।।

# शिवचरण चौहान

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कनपुर