पद्मश्री रामचंद्र मांझी

नहीं जानते होंगे सभी

लौड़ा नाच के नचनिया को

साटा के मुताबिक एक गांव से दूसरे गांव में 

प्रस्तुति के लिए 

पैदल पैदल तेजी से चलते जाते हैं

मानो भादो में गंडक नदी का पानी

भैसालोटन से भागते हुए पिपरा पहुंच रहा हो

समय से पहुंचना इसलिए भी जरूरी

ताकि मलिकार का कोपभाजक ना बन जाएं।

सांझ ढलते ही गांव के बाहर एक मैदान में

खड़ा है छप्पन चोप का सामियाना

और बांस के सहारे चारो तरफ ऊंचाई पर 

लगाई गई हैं लाउडस्पीकरें

मलिकार के दरवाजे पर

बैठा दिया जाता है जमीन पर नचनिया को

कुछ खिलाने के लिए 

वैसे ही जैसे गांव में अछूतों के साथ होता रहा है।

शाम ढलते रावटी में

टूटे पुराने आईने में 

मुंह देखते और मुर्दाशंख और इंगुर का पेस्ट

चेहरे पर मलते नचनियों को देखना

गांव के बच्चों के लिए होता है कौतूहल का विषय

तिसपर जब नचनिया

माचिश की तीली से पत्थर पर घिसे

कोयला और पानी से बनाता है कमानीदार भौहें

कमाल लगता है तब

नारियल के तेल में इंगूर डालकर 

करीने से होठ पर लिपिस्टिक की तरह लगाता है

तो बच्चे हुलुक हुलूक कर देखते हैं।

ऐसे ही देखा था उनको 

कुर्ता निकाल कर स्त्री का अंगवस्त्र पहनते

पुराना धुराना ही

जिसमें हुक नहीं 

कामचलाने के लिए आलपीन लगी थी

ब्लाउज पहन कर और माथे पर बिग उसपर एक फूल

और फिर धोती की जगह साड़ी लपेट कर

नब्बे साला पुरुष 

बदल जाता है नवयौवना में।

और फिर थोड़ी देर बाद

नगाड़े की सधी आवाज, 

ढोलक-झाल की झंकार 

और हरमुनियम की धुन

सुनते इस वृद्ध में उठती है अजीब सी हरकत 

और मंच पर गाते पहुंच जाते हैं –

‘सखिया सावन बहुत सुहावन

मनभावन ना अइले हो…’

हिरनी की तरह फुर्ती उनमें आती है ऐसे

जैसे शरीर में बिजली कौंध गई हो

और एकाएक छा जाते हैं दर्शकों की आंखों में

तब समझ में आता है सबको

क्या है यह लौंडा नाच!

सच कहूं तो दस साल की उम्र से

इस चौरानबे साल के उम्र तक

उन्होंने नाच नहीं 

वरन की है साधना 

सह कर हर अपमान

नचनिया की पहचान को दिलवाया सम्मान

भोजपुरी को मिला मान

भिखारी ठाकुर की यह खोज

आज हैं पदमश्री रामचंद्र मांझी

भोजपुरियों की आन, बान और शान।

– संतोष पटेल

नई दिल्ली