मेरी आँखों में हरपल बसी रहती हो तुम
ख्वाबों में सामने खड़ी रहती हो तुम
बेचैन आँखे आज भी निहारती हैं तुम्हें
कहाँ कुछ अब जुबां से कहती हो तुम।।
जमींं का नजारा कोई अब नहीं लुभाता हैं,
मन को कहाँ अब सफर में कोई भाता हैं,
सुबह-शाम यादें बनके मचल जाती हो तुम
बिजलीयों सी चमक के चली जाती हो तुम।
कहाँ कुछ अब जुबां से कहती हो तुम।
सफर ही जिंदगी का गुजारना हैं गर
क्यों चाँद बनके दिल में उतर जाती हो तुम
आँखो में बुने सपने को जगा जाती हो तुम,
मेरे हौसले को हवा फिर दे जाती हो तुम।
कहाँ कुछ अब जुबां से कहती हो तुम।
संजय श्रीवास्तव
अनीसाबाद, पटना