अज्ञातवास में सैरन्ध्री बनी द्रौपदी के मन की थाह लेता प्रबंध-काव्य
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और सड़क की दिशा का नाम पौंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे जरूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है ||
सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अमृता प्रीतम जी की यह कविता ‘मेरा पता’ अपनी अस्मिता और स्वतंत्र पहचान तलाशती नारी को एक प्रेरणा और हौंसला देते हुए मार्गदर्शन करती है। शेक्सपियर ने भले ही कहा हो ‘व्हाट्स इन अ नेम?’ अर्थात् नाम में क्या रखा है?’परन्तु यह एक हक़ीकत है कि हम सभी अपनी एक स्वतंत्र पहचान/नाम बनाने के लिए ही जीवन भर प्रयासरत रहते हैं। ऐसे में किसी को अपनी निजता को लुप्त कर अपनी पहचान छिपाकर जीने को विवश होने में कितनी पीड़ा का अनुभव होगा?
महाभारत में पांडवों के वनवास और अज्ञातवास के विषय में हम सभी परिचित हैं। द्युत-क्रीड़ा में कौरवों से सब कुछ हारने के बाद पांडवों को 13 वर्ष वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास बिताना पड़ा था। अज्ञातवास की शर्त यह थी कि यदि पांडव इस दौरान पहचान लिए गए तो उन्हें फिर से 13 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास काटना पड़ेगा। अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्त होकर और द्रौपदी ने पाण्डवों से अलग रहकर राजा विराट की पत्नी महारानी सुदेष्णा के पास ‘सैरन्ध्री’ बनकर दासी के रूप में अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया था। इस दौरान ‘सैरन्ध्री’ बनी द्रौपदी जैसी विदुषी और आकर्षक व्यक्तित्व वाली सुन्दरी को कितनी भयावह मानसिक पीड़ा, अपमान और यातना भरी किस मनोस्थिति से गुज़रना पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। श्री पंकज त्रिवेदी द्वारा सम्पादित गुजरात से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ का ताज़ा अंक (अक्टूबर-दिसंबर 2021) द्रौपदी की इसी व्यथा को, गुजराती के श्री विनोद जोशी के प्रबंध-काव्य ‘सैरन्ध्री’ के साथ, कहता हुआ उपस्थित हुआ है। सरस, सहज और प्रवाहमयी भाषा में सम्प्रेषणीयता लिए यह प्रबंध-काव्य इतना सुग्राही हैं कि आप एक बार पुस्तक उठा लें तो फ़िर समाप्ति पर ही रखेंगे। अवलोकनार्थ कुछ छिटपुट पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं-‘सत्य है कि छलना है?प्रतिपल होती भ्रान्ति अनंत, अधीर मन के अंधकार का कब आएगा अंत’, ‘द्रुपदसुता या धृष्टद्युम्नभगिनी, या पांडवनार, परिचय सब हो गए लुप्त, यह सबसे भीषण हार, गुप्तवास के कठिन कवच से, कुंठित हर इक श्वास, निजता छोड़, दिया निज को ही, दुष्कर कारावास’, ‘मैं सैरन्ध्री, केवल दासी, परिचय अब तो है आभासी; अवगुंठित पांडवपटरानी, द्रुपदसुता, पर मैं अनजानी’, ‘सहते पांडव अतिशय पीड़ा, नियति निरंतर करती क्रीड़ा; पल में प्राप्ति लुप्ति भी पल में, नहीं तृप्ति शाश्वत भूतल में!’, ‘पाँच पाँच पति किन्तु अकेली, विकट निरुत्तर जटिल पहेली; नहीं स्पर्श बस केवल दर्शन, भार्यापद का प्रबल विकर्षण। एक वर्ष की निबिड़ समस्या, देह अकारण करे तपस्या; आस्फालन मन भरता दाग में, रहे बदलता चित्रतुरग में’, ‘मिला जन्म से शाश्वत जलना, यज्ञकुंड से नहीं निकलना; ज्यों-त्यों गले लगाया किसको?कहो विमुख या सम्मुख जिसको’, ‘नारी निज में निरुपम निश्चल, बाहर रुक्ष अवांतर कोमल, सहज राग से रहे पिघलती अनचाहे तो कभी न ढलती। रही जूझती बिना सहारे, आज खड़ी थी निज के द्वारे; निरी उपेक्षा अनहद पाई, स्वयंसिद्ध परिसर में आई। दासी नाम लगा विशेषण, करना चाहा अलग प्रतिक्षण; सैरन्ध्री का स्वांग हटाया, यज्ञपुत्री का जन्म मनाया’, ‘शरणशीलता है समझौता, अर्थ न इसका आश्रय होता; दृष्टिकोण का है सब रोना, होता सबको निज का होना….’।
आपको इस काव्य उपवन में आमंत्रित करते हुए हम श्री पंकज त्रिवेदी जी को ‘विश्वगाथा’ के इस विशेषांक के लिए और श्री विनोद जोशी जी को इस प्रबंध-काव्य के सृजन हेतु हार्दिक बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएं देते हैं। हमें विश्वाश है कि उनका यह उपक्रम हिन्दी साहित्य जगत् में सराहा जाएगा। इति शुभम्।।
डॉ. सारिका मुकेश
एसोसिएट प्रोफ़ेसर एंड हेड
अंग्रेजी विभाग
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(तमिलनाडू)
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