मनभावन ऋतुएँ

यों तो इस धरती पर ऋतुएँ आती-जाती रहती हैं। वह अपनी सचेष्टता में आती हैं और वैसे ही धीरे से चली भी जाती हैं। आज हवा सूरज से सङ्गत करने को उतारू है। करोड़ों किलोमीटर की दूरी पर टँगा वह भुनभुनाता तारा, आज उस तेज में नहीं दीख रहा। बादलों ने अपनी मड़ई डाल रखी है। तेज का छंद मड़ई पर छनकर लौटता जा रहा। आलाप की पगध्वनियाँ नीचे की ओर अवश्य आ रहीं। सम्भवतः दृष्टि के संकोच को भाँपकर उनको आ ही जाना होता है। ऋतुएँ तो जीवन का अकुण्ठ हर्ष होती हैं। वे किसी शीघ्रता में नहीं रेंगती। वे तो देवत्व की समृद्धि हैं। दो तरह से घूमते इस ग्रह पर, ये ऋतुएँ भी चक्कर लगाकर टोहती रहती हैं। यहाँ कुछ भी अनायास नहीं है।

देखता हूँ बीचबीच में बादल फट जाते हैं। कुहासे ने भोर की संगति में बैठकर साँझ तक को न्यौत दिया है। साँझ आज कुछ पहले आ गयी है। जैसे कोई नात-रिश्तेदार अपने आने के व्यवहारिक क्रम को कभी-कभार तोड़कर आ जाता है। तब स्नेह में आश्चर्य की बुनावट कुछ और स्पष्ट हो जाती है। ऐसे ही साँझ चली आयी है। साँझ और रात में जो आकाश की दूरी होती है, उसे कईबार अनदेखा ही रहने देने का मन होता है। किन्तु चिरई-चिरोमन तो अपने ही समयचक्र में चलते हैं। और आज भी वे समयघड़ी की परछाईं में अपने परों को जोड़े बढ़ते जा रहे। जीवन ऐसी ही कोई ऋतु है। आती सी। जाती सी। कुछ ठौर तक रह जाती सी। रेंगकर बढ़ती हुई और झटके से चुक जाती सी। सहसा एक सूत्र भीतर कौंधता है।

मैं जीवन को उसकी काम्यता में, उसके आलोक में देखता हूँ। समय को सञ्च लेता हूँ। कितनीं ऋतुएँ इस जीवन से विदा हो गयीं। जाने कितनीं बची होंगी। किन्तु ऋतुओं का आत्यन्तिक आवास मुझमें अब भी बचा है। कई बातें बस प्रतीकात्मक होती हैं। उन्हें सीधे कह देने में उनकी ही ओर से अड़चन चली आती है। ऐसे ही इन ऋतुओं ने मुझे जीवन के स्वर दिये। जाड़े ने रात दोहरी की। सिकुड़ते दिनों में सफेद चादर में ढके क्षितिज ने कईबार सूरज को तीसरी ओर भेज दिया। मैं स्वयं को भुलाता हुआ उस ओर लौटता रहा जहाँ से छाती में समृतियाँ जमती हैं। मैं उन्हें साँसों की भाप जैसे घोंघता रहा। वे लौटीं किन्तु हाथ कुछ न आया। तब मैंने जाना कि जीवन में बीता हुआ बीत ही जाता है। गर्मियों की रातों ने मुझे तारों की आहट भेजी। एकटक उन्हें देखना मुझे अस्तित्व के पाल में गिराता गया। मुझे जान पड़ा कि यह अस्तित्व अपने में निमग्न है। यह व्यतीत का वह आवरण है, जिसको मनुष्य ओढ़ता है। अपनी क्षुद्रता को यदि किसी कसौटी पर परखना हो तो ताराओं की रात तक चले जाना चाहिये। यह अनन्तता व्यक्ति को अपने में सोख लेती है। बरखा ने मुझे जीवन के प्रति निक्षिप्त किया। बूँद गिरती रही, मैं भीजता रहा, पसीजता रहा। मैंने सीखा कि व्यक्ति में सबकुछ धारासार ही बरसता है। क्या दुख! क्या सुख! और इस धारासार में व्यक्ति को उतर जाना चाहिए। रह जाना चाहिए। हो जाना चाहिए। और होकर पार हो जाना चाहिए।

मैं धूप नापता हूँ। और जब मैं ऐसा कर रहा होता हूँ तो एक बच्चा पहिया को हाँकता हुआ, धूप काट जाता है। सहसा मैं देर तक उस पहिए की धुरी सङ्ग धरती की चाल मापने लगता हूँ। यह सब खेल कुछ देर के हैं। इसे जान लेता हूँ।चाल को रुक ही जाना होता है। स्थायित्व की कोई उम्र नहीं होती, वह तो अबाध है। किन्तु इसे नापने वाला, अपने ज्ञान के उत्कर्ष में छटपटाता हुआ घूम जाता है। अस्तित्व का वर्तुल किसी को नहीं छोड़ता। सभी विधियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। विधि की गणना में, उसके गणित में, इतनीं अलभ्यता है कि उसका उपादान असम्भव है।

ऋतुएँ मुझे छूती हैं। यह जगत मुझमें जागता है। मैं उन्हीं के साथ अपनी नियति लगा देता हूँ। यह जीवन आदमी को मीजता है। माँजता है। माँड़ता है। यह चुपचाप उसे निचोड़कर चला जाता है। आदमी ढह जाता है। जीवन रह जाता है। मैं तिनकों को घोंसले में पनपते देखता हूँ। पेड़ पर जमी सफेद पपड़ी अब पियरा गयी है। कोई गिलहरी उसे अपने पंजों से खुरच जाती है। उसमें से निकलकर कोई नन्हा कीड़ा अपनी नींद को टटोलता हुआ जम्हाता है। ज्यों वह गिलहरी अनायास ही उस पपड़ी को खुरच गयी कि वह कीड़ा जाग सके। जीवन भी ऐसे ही हमारी पपड़ियों को खुरचता रहता है।

ऋतुओं के लौट जाने और चले आने में समय का कोई ह्रास नहीं होता। यह अस्तित्व भी ऐसा ही है। इस अस्तित्व के कालचक्र में सब डूब जाता है। ठीक इसी अस्तित्व में होकर, मैं जाड़े में डुबकी लगा जाता हूँ। ऐसी ही किसी डुबकी में हम स्मृत हो आते हैं।

और अन्त में हम सभी ऋतु भर खेल लें, इसी शुभेच्छा के साथ अम्बर भर नमन 🙏❤🌹

प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”

युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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