वारे- न्यारे, तारे- क्या रे |
पगडंडी पर हरकत करते….
सिमट गए संसार सहारे |
भूतल में छाया यह रोदन,
अब चाहे तो श्याम-श्वेत कर….
या तो अपने प्राण बचा रे |
अक्सर मैंने इस धरा को….
सिसकते-बिलकते देखा है मौन |
नृत्य करे जो भाव-विभोर हो….
वह अंतर्मन का स्वामी कौन |
मेरा मन करता क्यूँ न मैं….
भांति-भांति के पुष्प बिखेरूँ |
पर जब बंजर मैंने ही की….
धरा हरी अब कहाँ बटोरूँ |
तीव्र उठाती स्वर अब कर्मों का….
जनमानस से बोल रही है |
सुप्त पड़ी थी जिस पीड़ा से….
कर विलाप मुख खोल रही है |
अक्सर मैंने इस जननी को….
ठिठुरते काँपते देखा है मौन |
हर कृत्य मेरा जो दिखा रहा….
वह अंतर्मन का स्वामी कौन |
–पंकज कुमार तोमर
गोपेश्वर , उत्तराखंड
मो. – 8126874790