हो चला सूरज भी अस्ताचल
आकाश भी है कुछ लोहित-सा
परिंदों के झुंड लौट चले
अपने आशियानों को
प्रकृति की हर चाल
संकेत देती है–
शाम के हो जाने का
धीरे-धीरे रात भी आई है
अपना आंचल फैलाए
स्निग्ध चांदनी में
इस धरा को नहलाने
चांद की मस्ती का क्या कहना
वो तो है अपनी चांदनी पर इतराएं
निशा है अपने दामन में
न जाने कितने राज समाए
ख़ामोशी का राज है हर कहीं
बस झिगुरो की आवाज
आती है रह-रहकर
है कितना सुकुन
शांत रात के दामन में!!!
विभा कुमारी “नीरजा” Noida