मुसाफ़िरखाना

    हम मुसाफिर ही तो हैं, 

चलते रहते है,

अनवरत जिंदगी की, राह पर। 

मिलते रहतें हैं ,

 हमें  अनगिनत  राही,

होती है गुफ्तगू भी,

फिर चल पड़ते हैं,

 सब अपने रास्ते।

कभी-कभी तो ,

कुछ रिस्ते भी बन जातें हैं।  

कभी  चिर परिचित होते हैं 

कभी होते है सब अनजाने। 

   मिलना और बिछड़ जाना, 

है प्रकृति का नियम शायद,

कुछ भूल भी जातें हैं, 

और कुछ भुला दिये जाते हैं, 

मगर फिर भी,

कुछ को कहाँ मुमकिन है ,

 कभी भुला पाना।

   न जाने क्या सच है,

और क्या है फसाना।

मगर जीवन के रंगमंच पर  ,

सब मुसाफिर हैं, 

और संसार है ,

बस एक मुसाफ़िरखाना। 

रूबी गुप्ता 

कुशीनगर उत्तर प्रदेश