चहल कदमी
आँगन में
करती है धूप।
पंछी बैठे किले की
मुंडेरों पर।
बंजारे लौट आए
हैं डेरों पर।।
निखर गया
पोखर और तालों
का रूप।
घाटों से जाल हैं
फेंकते मछेरे।
और अकेलेपन में
तन्हाई घेरे।।
अंबुनिधि-
बना हुआ है
नदियों का भूप।
तालों में फैली
सिंघाड़ों की बेल।
मौसम तो बदलेंगे
ऋतुओं का खेल।।
कलयुग को
कोस रहे
पनघट और कूप।
अविनाश ब्यौहार
जबलपुर मप्र