आज भी याद बहुत है आती कुयें की रस्सी।
तेरा नाम लेकर तड़पती कुयें की रस्सी।
मेरी आमद में भर देती जन्नत का स्वरूप,
कुयें भीतर जब भी जाती कुयें की रस्सी।
सुन्दर गोरे हाथों की जब उसको छू मिलती,
पानी के सुरताल में गाती कुयें की रस्सी।
पवित्र पानी की मंज़िल ही प्यास बुझाती है,
हर मौसम में हर को भाती कुयें की रस्सी।
पानी का जब चुम्मन लेकर वापस आती है,
पानी से ही फिर शर्माती कुयें की रस्सी।
एकाग्रचित संघर्ष से ही मंज़िल मिलती है,
ख़ाली लोटे के समझाती कुयें की रस्सी।
जीवन का संदेश इसी में संकेतिक देता,
टूटे तो फिर ख़ूब रूलाती कुयें की रस्सी।
कोई सुन्दर सा मुखड़ा याद बहुत है आता,
मेरे मन को तब ही भाती कुयें की रस्सी।
पानी पीने के बहाने खुल कर मिलना गिलना,
बिछुड़े हुए मीत मिलाती कुयें की रस्सी।
ना वो गाँव, ना वो कुआं, ना वे मीत पुराने,
हां तो फिर याद क्यों आती कुयें की रस्सी।
मेरी ग़ज़लों के सुन्दर प्रतीकों-बिम्बों में,
आज भी सब की प्यास बुझाती कुयें की रस्सी।
थकन, समर्पण, निरछल तन्मयता सहिष्जुता
लोगों के लिए जान रूलाती कुयें की रस्सी।
लोटे की डुबकी से पानी की स्वतंत्रता को,
पायल की भांति झनकाती कुयें की रस्सी।
‘बालम’ निस दिन तुम तड़क सवेरे मिलते थे,
गाँव की मीठी याद दिलाती कुयें की रस्सी।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब)
मो. 9815625409