यह सिर्फ मकान नहीं है

नहीं, यह सिर्फ मकान नहीं है।

घर है, मेरा घर, मेरे अम्मा-बाबा का घर।

उनकी उम्मीदों का उनके स्वप्नों का घर

दो कमरे, एक चौका और एक चौखंडी……बस।

वे हमेशा चाहते थे छोटे से छोटा घर

ताकि घर के लोग रह सकें एक दूसरे के अधिकतम निकट

प्रत्येक सुन सके,

एक दूसरे के स्पंदन, धडकन, महसूस कर सके दर्द।

ये सीलन से भरी हुई दीवारें नहीं है

ये हमारे अम्मा-बाबा का पसीना है

इसी घर में जमा है …..खुशबू के मानिंद।

और ये कमरा…….छोटा सा

यहीं चारो धाम हैं।

जहॉं हमने संस्कार पाए,

बाबा हमें यहीं पढ़ाते थे…….

यहीं हमने अपने पंखों का इस्तेमाल करना सीखा……….उड़ना सीखा।

……अरे…….. चौखंडी तो देखिये

यहॉं तो ठंड की कुनमुनाती धूप में हम नहाते थे…

….अम्मा निहलाती थी रगड़-रगड़ कर……..

तन और मन दोनों साफ कर देती थी।

सुनों! अब मैं तो फिर से यहीं रहॅूंगा।

मैं रहना चाहता हॅूं अपने

परिवार के अधिकतम निकट……..।

डाॅ. लोकेन्द्रसिंह कोट