मानवीय संवेगों की यथार्थ अभिव्यक्ति की विवशता का संग्रह
‘आई समटाइम्स थिंक दैट पीपल्स हार्ट्स आर लाइक डीप वेल्स. नोबडी नोज व्हाट्स एट द बॉटम. आल यू कैन डू इज इमेजिन बाई व्हाट कम्स फ्लोटिंग टू द सरफेस एवरी वन्स इन अ व्हाइल.’-सुप्रसिद्ध जापानी उपन्यासकार हारुकी मुराकामी की यह पंक्तियाँ आज डॉ. मनोज कुमार के काव्य-संग्रह ‘बिंब का प्रतिबिंब’ को पूरा पढ़ने के बाद बरबस ही स्मृति में कौंधने लगीं। सच में ‘हम सभी के भीतर कुएँ हैं-गहरे अँधेरे कुएँ-निराशाओं के, संभावनाओं के, आशाओं के, और समय-समय पर, हम उतरते हैं उनमें, और ले आते हैं भरकर, थोड़ी-सी उदासी, थोड़ी-सी निराशा, थोड़ी-सी ख़ुशी, थोड़ी-सी आशा’ (सारिका मुकेश)।
डॉ मनोज के इस संग्रह में आज की भागमभाग और गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाली ज़िन्दगी के विभिन्न बिंबों के प्रतिबिंब हैं। इसमें वर्तमान की कटुता है, तो अतीत की मिठास भरी स्मृतियाँ भी है। उनका मानना है कि ‘असल में यह ज़िन्दगी जो है, युद्ध और शांति के बीच, झूलती हुई पतंग की डोर भर है, जो न जाने कब काट दी जाएगी, और तुम्हारे भीतर, यह अहसास बरकरार रखा जाएगा, कि तुम उड़ा रहे हो’। आप खुद ही देख लीजिए-‘हर रोज कोई-न-कोई, टीवी चैनल लड़ रहा है युद्ध, अपने न्यूज़ रूम में, ऐसा वर्चुअल वॉर, जिसका नहीं है कोई आधार, युद्धोन्माद पैदा किया जा रहा है, जैसे किसी किसान के खेत में, पैदा हो जाती है, अनावश्यक खर-पतवार’। कवि ऐसे एंकरों को आगाह करते हुए कहता है-‘हे एंकर! असली बात है, सेना और संसाधनों को बचाना, ना कि सैनिकों को गँवाना, ना कि उनको बेजा उकसाना’।
कवि को लगता है कि ‘आज हर कोई शायद, शून्यकाल में ही साँसें ले रहा है, एक-दूसरे के प्रति, अविश्वास प्रस्ताव लेकर खड़ा है, और हाथ जोड़े मुस्कुरा रहा है’। वो सभी से कहना चाहता है-‘आओ कभी मिलकर इस शून्य को तोडा जाए, खामोश संवाद को अंतर के धागों से जोड़ा जाए, साँसों के संगीत को जरा और पास से सुना जाए, और साथी क्यों ना कोई नया गीत बुना जाए’। यूँ भी ‘वक़्त तो शायद अब उनका भी बदलने वाला है, दिल से हमारे उनका प्यार निकलने वाला है…शायद आपका मन जानता है वक़्त जल्द ही बदलने वाला है’।
सुप्रसिद्ध गीतकार श्री राजेन्द्र राजन जी की पंक्तियाँ याद आती हैं-‘जितना कठिन बना डाला है, उतना कठिन नहीं है जीवन’। आदमी प्रेम की महत्ता को जानते हुए भी नफरतों की ज़हर बुझी लौ में पता नहीं आज क्या खोजने का प्रयास कर रहा है। प्रेम को महसूस करना कोई मुश्किल काम तो नहीं-‘अगर तुम महसूस कर सकते हो, बारिश की बूंदों को अपने तन पर, तो महसूस कर सकते हो, प्रेम को भी उन्हीं बूंदों की तरह…प्रेम और प्रेम के बीच, एक अलिखित करार होता है, जैसे बूँद-बूँद का करार है, धरती से भी और दूब से भी’। आप यकीं मानिए-‘ये सिलसिला काफ़ी कुछ, वैसा ही है जैसा मद होता है. किसकी नद के, अनहद में खो जाने का, उससे मिलकर उस जैसा हो जाने का’। आज भी माँ के उस प्रेम को हम कैसे भूल सकते हैं जब ‘चूल्हे के आसपास बिखरी लकड़ियों को, माँ एक लकड़ी, चिमटे या फूँकनी से, एक ओर हटाती थी, अपने पास बिठा थाली परोसती थी, ना कोई डायनिंग टेबल और ना कोई चोंचलें, इन्हीं सब बातों से थे, बुलंद हमारे हौंसले’। सच में ‘कैसी भी हों अड़चनें राह में वो पल भर में आसान कर देती है, वो माँ ही है जो जगत में सब कुछ तुम्हारे नाम कर देती है’।
कुल मिलाकर सरल, सहज और प्रवाहमयी भाषा में सम्प्रेषणीयता लिए यह पुस्तक पठनीय है और कविता प्रकाशन के क्षेत्र में उनकी आमद का स्वागत किया जाना चाहिए। हम डॉ.मनोज कुमार को इस काव्य-संग्रह के सृजन हेतु हार्दिक बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएं देते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुँअर बेचैन जी की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात का समापन करते हैं-‘हो के मायूस न यूँ शाम-से ढलते रहिये, ज़िन्दगी भोर है सूरज से निकलते रहिये, एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे, धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये’।
इति शुभम्।।
डॉ. सारिका मुकेश एसोसिएट प्रोफ़ेसर एंड हेडअंग्रेजी विभाग
वी. आई. टी.वेल्लौर-632 014 (तमिलनाडू) मोबाइल: 81241 63491
पुस्तक का नाम-बिंब का प्रतिबिंब (काव्य-संग्रह) लेखक-डॉ मनोज कुमार
प्रकाशन-अनुराधा प्रकाशन, नई दिल्ली-110 046संस्करण-प्रथम, 2021मूल्य-250/-रू, पृष्ठ-120