स्मृति का आलिंगन बहुधा, कर जाता गंभीर।
विस्मृतियों से अंतर्मन में, धूमिल हुई लकीर।
करी प्रार्थना मांगी मन्नत, हर मंदिर में संग।
लिए साथ जो वचन हृदय में, चुभते जैसे तीर।
परि स्थिति ने बना मरुस्थल, उड़ा दिया ज्यों धूल।
गर्म रेत ने दबा लिया वह, जीवन का कश्मीर।
स्वप्नमयी टूटे मनकों की, चला रहा था नाव।
अनायास मिल गयी भँवर में, वही पुरानी पीर।
नभ स्पर्श सिक्त करने का, लहरें करें प्रयास।
झोंके की विपरीत दिशा से, मन हो रहा अधीर।
प्रियतम ने विच्छेद शब्द कर, किया स्वयं संतुष्ट।
बहने लगा सिंधु जल मिलकर,विवश चक्षु का नीर।
प्रिय को प्रिय के हेतु बचाकर,किया मुझे तम भेंट।
“अपना रखना ध्यान” कहा फिर,बनी सुगंध समीर।
पंकज त्रिपाठी हरदोई उ प्र
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