आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
बुझा दे प्यास दिल की वो समंदर नहीं देखा
खामोश रहती है जुबा महफिल में अक्सर ही
कलम से कलाम को कभी पढ़कर नहीं देखा
हकीकत में कभी ख़्वाबो का कोई वजूद नही
बहती हुई दरिया में कभी ठहर कर नहीं देखा
छोड़ गया तो छोड़ गया मुख्तसर सी बात है
इश्क़ की पगडंडी पर फिर चलकर नहीं देखा
बिखरे रिश्तों को संभालते रहे यूँ उम्र भर
इक दूजे के बस दिल में रहकर नहीं देखा
दर्द है या सुकून इश्क़ मे, इल्म नहीं कुछ भी
कभी किसी की चाह में जो मरकर नहीं देखा
ढलते सूरज ने क्या कह दिया समंदर से
लहरों ने कभी फिर मचलकर नहीं देखा
खुद को अपने ही कांधे पर उठा लाये”मधु”
इश्क़ में वफा का ऐसा भी मंजर नहीं देखा
मधु टाक
इन्दौर (म. प्र)