वह अपने फटे-पुराने छोटे से कंबल से अपने शरीर को बामुश्किल ढापते हुए और अपने सीने से दो साल के गोपी को चिपकाय पूस की रात को मानों आँखें तरेरते हुए चुनौती दे रही थी पर ऊपर वाले की तरह वह सर्द रात भी भला दुखियों,गरीबों,मजलूमों की क्यों सुनता ? रात गहराती जा रही थी। ठंड ऐसी कि हाड़ तक जम जाय ।
फुटपाथ पर उसके कई और पहचान वाले भी थे जो घुटनों को पेट से चिपकाय करवट बदलते हुए शीतलहरी के क्रूर पंजों से बचने के लिए मन ही मन आदित्य देव के जल्दी उदित होने की प्रार्थना करते हुए रात की इस चुनौती को सीमा पर तैनात किसी सैनिक की भांति सहे जा रहे थे और कुछ उसी ठंड में गठरी बने खर्राटे भरते हुए मानों पहरेदारी का फर्ज निभा रहे थे।
फुटपाथ के किनारे एक जीप रुकी। कुछ सफेदपोश टोपी ठीक करते हुए उतरे और सोये हुए लोगों को कंबल ओढ़ा कर जैसे मानवता की मिसाल कायम करने लगे। गोपी अब भी अपनी माँ के शरीर से अठई के माफिक चिपटा हुआ था।कंबल देखकर उसकी आँखें भी चमक उठी । उसकी आँखों से जैसे आसीस बरसने लगा । सफेदपोश उसके निकट आए। कंबल देते हुए वे मुस्कुराये ।आँखों से ही अंग-अंग को छूआ । उनके चेहरों पर वासना नृत्य कर रही थी ।आँखों की लाल डोरियां थोड़ी और रक्तिम हो उठीं।
एक ने सहानुभूति दिखलाते हुए उसके शरीर को छुआ,वह हौले से काँप उठी, दूसरे के हाथ में कुछ कागज़ कड़कड़ा रहे थे—हरे-हरे कागज़,खुशियों के खरीदार कागज़,हम सबकी की कामना वाले हरे कागज़ । उसने एक नज़र आसमान की ओर देखा। सर्द की धुंध में चाँद भी हुक्मरानों की तरह फर्ज से आँखें मूँदे सो रहा था। हाँ! कुछ तारे अपनी उन्नीदी आँखें अवश्य झपका रहे थे। वह मौन साधे गोपी को कलेजे से चिपकाये धीरे-धीरे उनके पीछे चल पड़ी थी। मानवता के रखवाले विजयी मुस्कान से जीप में आ बैठे। हरे कागज़ अपनी ताकत पर ठहाके लगा रहे थे ।
डॉ रत्ना मानिक
टेल्को जमशेदपुर
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