कड़ा संघर्ष भी करके मैं, बस इतना ही पाता हूं।
दो वक्त की रोटी बन पाए, मुश्किल से जुटाता हूं।।
कभी-कभी पानी पीकर भी, भूखा ही सो जाता हूं।
जब बच्चों की भूखी आंखें, नमी में भीगी पाता हूं।।
अपनी औलाद को शिक्षा दूं, मैं भी पढ़ाना चाहता हूं।
चाहत का घुटता गला है जब, खुद को लाचार में पाता हूं।।
कंकर पत्थर चुभे पैर में, उनसे ना आहत होता हूं।
अपने परिवार की दुर्दशा पर, भीतर भीतर रोता हूं।।
दावे बहुत होते हैं लेकिन, साकार नहीं कोई होता।
अगर एक भी दावा पूरा होता, कोई मजदूर नहीं रोता।।
सरकार की सभी योजनाएं, फाइलों में बंद मैं पाता हूं।
दिन पर दिन ये हाल देखकर, खुद का विश्वास गंवाता हूं।।
मेहनत से मुंह ना मोड़ा कभी, अपने हक को चाहता हूं।
क्यूंकर मैं लाचार हुआ, जब कर्मों का विधाता हूं।।
स्वाभिमान का गहना पहने, अंतस मेरा रोता है।
अब ये कोरोना और आ गया, धीरज भी अब खोता है।।
अब बहुत थका हूं भीतर से, कितनी रातों को रोका है।
परियोजना जो भी आई, धोखा ही बस धोखा है ।।
सो जाने दो चैन से मुझको, नींद का भारी झोंका है।
तार तार सब आशाएं, और टूटी हुई नौका है।।
सुनीता शर्मा दिल्ली ✍️