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मम्मी, आज बाजार चलेंगे,मुझे परफ्यूम खरीदना है, मेरे किशोरवय पुत्र ने कहा। ठीक है, मैंने कहा, पर कौनसा चाहिए पहले से देख लो, फिर बाद में कन्फ्यूज मत करना।
बेटे ने तुरंत कहा कि उसे वो वाला परफ्यूम चाहिए जिसममें एक लड़का शर्ट उतार देता है और लड़कियां उसको घेर लेती है…मै भी जब क्लास में जाऊंगा तो सब मुझे भी ऐसे देखेंगी… !!! मैंने पलटकर अपने बच्चे को देखा..बदतमीज, किस प्रकार की बातें कर रहा है,जरा सी भी झिझक नहीं है इसको। मैं तो बच्चा समझती हूं ,कुछ अच्छे मौलिक संस्कार सिखाने की कोशिश में लगी हुई हूं। और ऐसी सब चीजें ये कहां से सीख रहा है..?? पहले तो मुझे बहुत जोर से गुस्सा आया। फिर बाद में मैं कर्तव्यविमुढ सी सोच में डूब गई।
आखिर गलती कहां हो रही है या फिर जानबूझकर घर-घर से ये शिक्षा बच्चों को सहज ही हासिल हो रही है..?
धन्य हैं हम जो टीवी के द्वारा ढेर सारी ऐसी शिक्षा अपने नौनिहालों को घुट्टी की तरह रोज पिला रहें हैं जो उनमें संस्कार का रूप धारण करते जा रही है। इसके एकाध साइड इफेक्ट्स हो तब भी समझ में आता है पर ये तो पूरे समाज पर जड़ से असर डाल रही है। उन्हें संस्कारहीन, बेशर्म, बदतमीज, उदंड, जिद्दी बना रही है।आइए..देखते हैं कि हमारी आंखों के तारे क्या-क्या ग्रहण कर रहे हैं….
इतनी छोटी-सी उम्र में ऐसी अनावश्यक चीज के इस्तेमाल की इच्छा।
लड़कियों के प्रति ऐसे निम्न विचार।
खद को भीड़ में फालतू चीज के द्वारा उभारने की कोशिश।
पढ़ाई से ध्यान का भटकाव होना।
आज विज्ञापन ने तो स्त्रीयों का पूरा चरित्र ही खत्म कर के रख दिया है। हर एक वस्तुओं के विज्ञापन में उनका भद्दे तरीके से इस्तेमाल हो रहा है। श्रृंगार प्रसाधन सामग्री हो तो बात समझ में आती है पर पुरुषों के उपयोग की वस्तुओं के अलावा, धरती और आसमान या यों कहें कि पूरे ब्रह्मांड पर मौजूद सभी चीजों के विज्ञापन में स्त्रियों की उपस्थिति अनिवार्य हो चुकी है।
कितनी धीरे-धीरे..कितनी दक्षता से स्त्रियों का गौरव नष्ट किया जा रहा है। अप्रत्यक्ष रूप से उसका शोषण, उनका अपमान किया जा रहा है। और बिल्कुल महाभारत की तरह, सब ज्ञानी-महात्मा दम साधे बैठे हुए हैं। कोई भी कुछ नही कहता। अभी भी वर्तमान स्थिति को सुधारने के बजाय उसी कौरव पांडव युग की बात कर के उन्हें ही धिक्कारा जाता है, उन पर कथाएं ,कविताएं लिखी जाती है पर जो अभी नए जमाने की महाभारत निर्बाध गति से चल रही है,अनगिनत दु:शासन…स्त्री, बच्चें, समाज, संस्कृति रूपी द्रौपदी का रोज वस्त्रहरण, चरित्रहरण कर रहे हैं उस पर गौर करने,अंकुश लगाने का कोई विचार भी नहीं करता है। ये कोई नैसर्गिक समस्या तो नहीं है ,जिसके लिए भगवान से प्रार्थना की जाए। हो सकता है कि भविष्य में इस मुद्दे को बहस के लिए सुरक्षित रखा जा रहा हो। क्योंकि स्वयं पहल करने से बेहतर दूसरों पर दोषारोपण करना ज्यादा आसान होता है।
मैं मानती हूं कि इसमें कुछ दोष उच्छृंखलता पसंद स्त्रियों का भी होगा किंतु केवल उन चंद महिलाओं के कारण सभी के सम्मान को तो कटघरे में नही खड़ा किया जा सकता है ना..?
मैं जानती हूं कि मैं लिखूंगी और समर्थ लोग इस लेख लिखे पेपर पर समोसे लपेट कर खायेंगे, पर मैंने बचपन में पढ़ा था कि,” कोशिश करने वालों की हार नहीं होती”। सभी अपना-अपना धर्म निभाए बस इतनी ही आकांक्षा है।।
सीमा जैन*
खड़गपुर