बूढ़ी आँखों की कहानी………….

ये कहानी है या सफर है,

उन पाषाण बनी आँखों का,

वेदनापूर्ण किंतु मुस्कुराते होठों का,

कैद है जिनमें किसी का बचपन,

शरारतें, नखरे, जिद्दीपना,

किलकारियाँ औ बेतुके कई सवाल,

कंधे पर बैग है, हाथों में बिस्कुट,

पेट पर जूतों की मार संग,

गोदी में किसी का उछलना,

अनगिनत गलतियों को,

सीने में दफन करना,

कद बड़ा होते देख, बढ़ता देख,

आसमान छूता देख,

गर्व में झुकी कमर भी न झुकना,

अब कांधे पर ना बैग था,

न पेट से टकराते जूते,

न ही किसी ज़िद या किसी शरारत का,

मन-मस्तक पर कोई भार,

ज्यों हल्का सा हो गया सब,

फिर भी कमर एकदम थकी-झुकी सी,

बिना किसी भार के भी भारीपन,  

कुछ दूर ओझल होता देख,

ये पाषाण बनी बूढ़ी आँखें,

भारी अन्तर्मन से ढूंढ रही हैं,

अपने साथी को पार्क में,

वृद्धाश्रम में झुंड बनाकर बैठी,

अनगिनत बूढ़ी आँखों को,

अपने चश्मे को,दवाइयों के बंडल को,

रात ज्यों कालरात्रि सी प्रतीत नित

खुली पलकों से,

बिछौने पर लेट ताकतीं,

कल्पनाओं में एकटक व्योम को,

पाषाण सी बूढ़ी आँखें |

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक