आज की महिलाओं को हर कोई आज़ाद और स्वच्छंद विचरण करने वाली बता रहा है, पर क्या किसीने सोचा है की जो फैसला महिलाओं का निजी होना चाहिए वही लेने के लिए आज़ाद नहीं। जी हाँ अपनी ही कोख में ठहरे गर्भ के साथ क्या करना है वो फैसला कुछ महिलाएं खुद नहीं ले सकती पति और परिवार वालों के दबाव में आकर अवांछित बच्चें पैदा करने पड़ते है। अगर दो बेटी है तो बेटे और पोते की चाह में पति और ससुराल वालों की मर्ज़ी को मानते तीसरा बच्चा हर हाल में पैदा करना पड़ता है।
बेशक माँ बनना हर औरत के लिए गर्व की बात है ईश्वर की ओर से मिला अनमोल वरदान है मातृत्व। पर कई बार लड़कियों के साथ ऐसा हादसा हो जाता है की उस विषम परिस्थितियों में गर्भपात अनिवार्य बन जाता है। ऐसे मामलों में हर महिला को ये अधिकार होना चाहिए ये फैसला लेने का की गर्भ का क्या करना है।
इसमें कोई शक नहीं की अबॉर्शन पर अमेरिका से बेहतर है भारत का कानून की गर्भपात महिला का निजी फैसला है।
प्रत्येक 150 मिनट में चार मास की बच्ची से लेकर 16 वर्ष तक की बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है। दुष्कर्म से पीडि़त कई नाबालिग बच्चियों को गर्भ ठहर जाता है और मां बनना पड़ता है, जोकि ये गर्भ एक अनमना और लड़की के जीवन में बोझ कहलाता है। ऐसे में अबोर्शन ही आख़री इलाज होता है।
या कभी-कभी महिलाओं की सेहत से जुड़ी परेशानियों को देखते हुए उन्हें डाॅक्टर द्वारा अबॉर्शन की सलाह दी जाती हैं फिर भी घरवालों को बच्चा चाहिए होता है इसलिए जान के जोखिम पर भी बच्चा पैदा करना पड़ता है। जैसे गर्भवती महिला को दिल या किडनी की बीमारी हो। कुपोषित महिलाओं को भी अबॉर्शन करवाने की नोबत आती है क्योंकि प्रेग्नेंसी के दरमियान और डिलीवरी के वक्त उनकी जान को खतरा होता है। या तो गर्भ में पल रहे शिशु की स्थिति के अनुसार अबॉर्शन का फैसला लिया जाता है कभी बच्चे का विकास अटक जाता है, गर्भ सूख जाता है। ऐसे में अबॉर्शन पर रोक लगा देना तो महिलाओं की सेहत के साथ खिलवाड़ ही होगा।
पितृसत्तात्मक सोच वाले हमारे समाज में कई बार महिलाओं की सेहत से जुड़े फैसले लेने वालों में पुरुषों की मर्ज़ी को ही अहमियत दी जाती है। क्यूँकि पति और घरवालों को किसी भी कीमत पर बच्चा चाहिए होता है, ऐसे में महिला हितों की बात दब जाती है। ये फैसला महिलाओं की जान जोखिम में डाल सकता है। ऐसी परिस्थिति में महिलाओं को अबाॅर्शन का अधिकार होना चाहिए।
कई मामलों में देखने को मिला है कि खानदान के वारिस की चाहत में महिलाओं को अपनी जान पर खेलकर भी बच्चा पैदा करवाया जाता है, और उनकी जान चली जाती है क्या ऐसे मामलों में महिलाओं की राय जरूरी नहीं, फैसला उन पर छोड़ना जरूरी नहीं? हमारे देश में तो कई बार गर्भ में लड़की होने पर महिलाओं का अबॉर्शन करवा दिया जाता है माँ क्या चाहती है ये पूछा तक नहीं जाता।
महिलाओं को गर्भपात के जोखिम से बचाने के लिए “बूंद पे बात” और “चुप्पी तोड़ बैठक” अभियान चलाकर झुग्गीवासियों में रहने वाली महिलाओं को जागरूक किया जा रहा है, ये बहुत गर्व की बात है। इस अभियान के माध्यम से उन्हें गर्भावस्था और असुरक्षित गर्भपात से निपटने के लिए तैयार किया जा सके। 18 से 30 साल की महिलाओं में अबॉर्शन ज्यादा होता है। इसका कारण लिव-इन रिलेशनशिप, गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल न करना, बलात्कार और अनियोजित परिवार है। ऐसे में महिलाओं को जागरूक होने की जरूरत है। क्यूँकि अवांछित गर्भ ठहरना और गर्भपात करवाना अपने शरीर के साथ खिलवाड़ है। बच्चे कब चाहिए, किस उम्र में चाहिए कितने चाहिए, और बेटा बेटी में फ़र्क किए बगैर दो बच्चों के बाद और बच्चें पैदा करने है या नहीं ये तय करने का हक बेशक महिलाओं को मिलना चाहिए। आख़िर ये मुद्दा हर महिला की शारीरिक और मानसिक सेहत से जुड़ा होता है।
अगर कानून बनाना है तो अबॉर्शन की टाइम लिमिट पर बनना चाहिए न कि उसे रोकने के लिए। 24 सप्ताह की समय सीमा सभी महिलाओं के लिए नहीं है। रेप पीड़िता, नाबालिगों और भ्रूण की असामान्यताओं से पीड़ित महिलाओं पर ही लागू होती है। कुछ मस्तिष्क और हृदय संबंधी परेशानियां 20वें हफ्ते के बाद भ्रूण के स्कैन में नहीं दिखाई देती है इसके लिए 24 सप्ताह चाहिए इसलिए ये समय सीमा हर महिलाओं के लिए होनी चाहिए। और गर्भ रिलेटिड हर फैसला औरतों का खुद का होना चाहिए।
भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर