सुनों स्त्री..सुनों ,
कब खोलोगी तुम
सांकल
अपने भीतर की ,
माना..
बहुत सलीके से सजाया तुमने
घर-आंगन ,
मुस्कराहटों को जगह दी
सारी उदास आंखों में ,
पर ,क्यों भूली रही
अपने ही केशों को सुलझाना ,
क्यों नहीं टांक लिए कुछ सितारे
अपने आंचल में ,
क्यों नहीं झांककर देखा चांद
मन की खिड़कियों से ,
क्यों नहीं की उससे देर तक
ढेरों लंबी बातें !!
सुनों स्त्री..
तुम जननी हो ,
जन्मीं हैं तुमने ही संभावनाएं ..
संभाला है तुमने ही धरोहरों को..
तुमने बढ़ने दिया मान्यताओं को
अनवरत ही ,
..तो जन्मो न अपनी एक भाषा !
निर्विरोध संशोधन करो मान्यताओं में ,
सुनों..
गढ़ों ऐसी लिपि
जो अनुवादित कर सके
तुम्हारे आंसुओं को
सही से !!
नमिता गुप्ता “मनसी”
मेरठ, उत्तर प्रदेश