हम तुम्हारे नेह में उलझे रहे ।
जबकि तुम संदेह में उलझे रहे ।।
इंतजार करता ही रहा तुम्हारा ।
मगर तुम गेह में उलझे रहे ।।
हमको तो रूह से मोहब्बत है ।
तुम हो कि देह में उलझे रहे ।।
वहां चादर की पैर से जंग थी ।
जबकि तुम बेह में उलझे रहे ।।
मुझको तो बस चाय पीनी थी ।
और तुम प्रलेह में उलझे रहे ।।
“वंदन” भींग रहा था छत पर ।
तुम हो कि मेह में उलझे रहे ।।
(गेह : घर । बेह : छिद्र । प्रलेह : कोरमा । मेह : बादल)
मनीष सिंह “वंदन”
आई टाइप, आदित्यपुर, जमशेदपुर, झारखंड
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