पाकर नव उपसर्ग, बदलती परिभाषा।
होकर प्रिय उत्सर्ग, सिसकती अभिलाषा।
रही अवांछित भूल,विलय अस्तित्व जिया।
परि स्थिति प्रतिकूल,इलय व्यक्तित्व किया।
बना अश्रु पर्याय, गिरा दो तुम रोकर।
बचा सकूं अन्याय, स्वयं मिट के हँसकर।
मिलूँ धूल हो व्यर्थ,नियति में जो अंकित।
या फिर बनूँ समर्थ, प्रकृति का यह इंगित।
स्नेहिल उत्कर्ष, बहा तू लोचन से।
कर दे मुक्त सहर्ष, वृथा आलोचन से।
खारापन अवशेष, मधुरता क्या होगी।
अभिलाषा अब शेष, बनूँ मैं उपयोगी।
निगल रहा हो काल, विहग कोई प्यासा।
गिरूँ वहीं तत्काल, सुभग बलि की आशा।
जीवन में अभिवृद्धि, नहीं कर पाऊंगा।
अर्पण की अभिव्यक्ति, दिखा मर जाऊंगा।
न ही सीप की चाह, जनक जो है मोती।
नहीं हृदय अवगाह, सरसता को रोती।
एकमात्र यह सोंच, धरा पर जब आऊँ।
पाऊँ प्यासी चोंच, तृषा पर बलि जाऊँ।
पंकज त्रिपाठी
हरदोई उ प्र
9452444081